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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १४६ श्रमणधर्म की समीचीनतया परिपालना के साथ-साथ अपने गुरु जिनेश्वरसूरि से आगमों का अध्ययन कर उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। . इस प्रकार विनय, वैयावत्य एवं निरतिचार श्रमण धर्म की परिपालना के साथ मुनि अभयदेवसूरि अनुपम अध्यवसाय, निष्ठा तथा अथक् श्रमपूर्वक व्याकरण न्याय, छन्द-शास्त्र तथा स्व-पर दर्शन के उद्भट विद्वान् एवं जैनागमों के तल-स्पर्शी ज्ञाता बन गये । सभी विद्याओं में निष्णातता और आगमों के गूढ़तम ज्ञान के तल-स्पर्शी ज्ञाता बन जाने के कारण मुनिश्री अभयदेव की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई। उनकी गणना उस समय के अग्रगण्य उद्भट विद्वानों में की जाने लगी। __ अपने प्रत्युत्पन्न-मति आगम मर्मज्ञ उद्भट विद्वान् प्रशिष्य अभयदेवसूरि के आर्जव-मार्दव-विनय आदि गुणों और यशोगाथाओं पर मुग्ध हो प्रथम महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि ने अपने परम आज्ञाकारी एवं प्रभावक शिष्य जिनेश्वरसूरि को आदेश दिया कि वे होनहार षोडश वर्षायुष्क किशोर मुनि अभयदेव को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित कर दें। अपने अनन्य उपकारी परम प्रभावक गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर जिनेश्वरसूरि ने वि० सं० १०८८ में अपने असाधारण प्रतिभा के धनी मेधावी शिष्य श्री अभयदेव को सूरि पद (आचार्य पद) पर प्रतिष्ठित किया । सूरि पद पर प्रतिष्ठित किये जाने के अनन्तर भी अभयदेवसूरि अपने गुरु के साथ विभिन्न क्षेत्रों में अप्रतिहत विहार-क्रम से जिन शासन के अभ्युदयोत्कर्षकारी कार्यों में निरत रह जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे । . अभयदेवसूरि को सूरिपद प्रदान करने के कुछ समय पश्चात् विभिन्न क्षेत्रों में जिन धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए प्राचार्य श्री वर्द्धमानसूरि पल्यपद्रपुर नामक नगर में पधारे । वहां अपने जीवन का अन्त समय जान कर आलोचनापूर्वक प्रशनपान का यावज्जीवन परित्याग कर संथारा ग्रहण किया । और वहीं वे स्वर्गस्थ १. ततः प्रज्ञातिशयात् षोडशवर्षजन्मपर्यायः कुमारावस्थ एव वर्द्धमानसूरिणाभ्यनुज्ञातो विक्रमीय १०८८ मिते वर्षे प्राचार्यपदमभ्यतिष्ठत् ! -अभिधान राजेन्द्र, प्रथम भाग, पृष्ठ ७०६-७०७ २. स चावगाढ-सिद्धान्त, तत्त्वप्रेक्षानुमानतः । । बभौ महाक्रियानिष्ठः, श्री संघाम्भोजभाष्करः ॥१७॥ श्री वर्धमानसूरीणामादेशात् सूरितां ददो। श्री जिनेश्वरसूरिश्च, ततस्तस्य गुणोदधेः ॥१८॥ -प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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