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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १५१ भी किसी प्रकार का कोई संशय किसी आगमिक शब्द के विषय में हो जाय, तो आप तत्काल मेरा स्मरण कर लेना । मैं तत्काल आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊंगी और आपके संशय से भली-भांति अवगत हो सीमन्धर स्वामी की सेवा में महाविदेह क्षेत्र में जाकर उनसे आपकी शंकाओं का पूर्ण समाधान प्राप्त कर अापको समुचित अर्थ से अवगत करा दूंगी। अतः आप सब प्रकार के ऊहापोह का परित्याग कर स्थानांगादि नौ अंगों पर वृत्तियों की रचना करने का कार्य प्रारम्भ कर दीजिये ।"१ ____ शासन देवी के कथन को स्वीकार कर अभयदेवसूरि ने नवांगी वृत्ति की रचना का कार्य प्रारम्भ किया। प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा प्रस्तुत किये गये इस विवरण से कुछ भिन्न रूप में "खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' के रचनाकार ने नवांगी वृत्ति की रचना के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप में विचार प्रस्तुत किया है : __ "तदनन्तर (जिनेश्वरसूरि के पश्चात्) नवांगी वृत्तियों के रचनाकार श्री अभयदेवसूरि युगप्रधानाचार्य हुए। वे नौ अंगों की वृत्तियों के रचनाकार कैसे हुए इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि सम्भारणा नामक ग्राम में अभयदेव सूरि व्याधिग्रस्त हो गये । ज्यों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों रोग बढ़ता ही गया। रोग की असाध्य स्थिति से अपनी शारीरिक अशक्तावस्था को देखकर अपने दोषों की आलोचना प्रत्यालोचना के लक्ष्य से अभयदेव सूरि ने चारों ओर चार चार योजन दूर तक के श्रावकों को बुलवाया । तेरस के दिन की रात्रि के अवसान काल में दो प्रहर रात्रि के अवशिष्ट रहने पर जिनशासन की अधिष्ठात्री देवी उनके पास उपस्थित हुई और उसने अभयदेवसूरि से पूछा-“सो रहे हो या जाग रहे हो?" . रुग्ण अभयदेवसूरि ने अतीव मन्द स्वर में उत्तर दिया-“जाग रहा हूं।" देवी ने कहा :-"शीघ्र उठो और सूत्र की इन नौ घुण्डियों को सुलझायो।" अभयदेव सूरि ने उत्तर दिया--"मैं उठ नहीं सकता।" देवी ने कहा :-"कैसे नहीं उठ सकते? अभी तो तुम बहुत दर्षों तक जीरोगे । और नो अंगों पर वृत्तियों की रचना करोगे।" १. यत्र संदिह्यते चेतः, पृष्टव्योऽत्र मया सदा । श्रीमान् सीमन्धरः स्वामी, तत्र गत्वा धृतिं कुरु ।। ११० ॥ आरभस्व ततोह येतत्, मात्र संशय्यतां त्वया स्मृतमात्रा समायास्ये, इहार्थे त्वत्पदो शपे ।। १११ ।। श्रुत्वेत्यंगीचकाराथ, कार्यं दुष्करमप्यदः........ ॥ ११२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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