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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] . जिनेश्वरसूरि [ १३६ वर्द्धमानसूरि ने, प्रभावक चरित्र के अनुसार श्रेष्ठी लक्ष्मीपति की अनुज्ञाप्रार्थना पर श्रीपति और श्रीधर नामक उन दोनों द्विज किशोरों को श्रमण धर्म में दीक्षित किया। कालान्तर में इन बन्धु द्वय की भगिनी कल्याणमती ने वर्द्धमानसूरि की छत्र-छाया में श्रमणी धर्म की दीक्षा ग्रहण की - इससे अनुमान लगाया जाता है कि श्रीपति और श्रीधर की श्रमरण दीक्षा के समय भी सम्भवतः उनके मातापिता अथवा किसी पारिवारिक जन ने इन्हें दीक्षा प्रदान करने सम्बन्धी अनुज्ञा प्रदान की हो। दीक्षा के पश्चात् इन दोनों भ्राताओं का नाम क्रमशः जिनेश्वर और बुद्धिसागरं रखा गया। श्रीपति और श्रीधर ने श्रमण धर्म में दीक्षित होने के अनन्तर अपने गुरु वर्द्धमानसूरि की सेवा में रह कर शास्त्रों का अध्ययन किया। पहले से ही वेदवेदांग एवं अनेक विद्यानों में पारंगत श्रीपति और श्रीधर ने स्वल्प समय में ही जैन सिद्धान्तों का भी तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लिया। पाटण में चालुक्य राज दुर्लभसेन की राज सभा में जिनेश्वरसूरि ने चौरासी गच्छों के चैत्यवासी आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर सुविहित परम्परा की जिस प्रकार पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की, इस सम्बन्ध में वर्द्धमानसूरि के परिचय में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है। इन दोनों भ्राताओं को सुयोग्य समझ कर वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि को आचार्य पद प्रदान कर अपना पट्टधर नियुक्त किया । बुद्धि सागर सूरि को भी उन्होंने द्वितीय प्राचार्य के पद पर अधिष्ठित किया। इन दोनों भाइयों की सहोदरा साध्वीजी कल्याणमति जी को वर्द्धमानसूरि ने महत्तरा पद प्रदान किया। बुद्धिसागर सूरि ने अपने ही समान नाम वाले सात हजार श्लोक प्रमाण . "बुद्धिसागर व्याकरण" नामक व्याकरण ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है। श्री जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि को प्राचार्य पद प्रदान किया। प्रभावक चरित्र के निम्नलिखित श्लोक के अनुसार श्री जिनेश्वर सूरि ने अपने गुरु वर्द्धमानसूरि के आदेश से ही अभयदेवसूरि को आचार्य पद प्रदान किया था : श्रीवर्द्धमान सूरीणामादेशात् सूरितां ददौ। श्री जिनेश्वर सूरिश्च, ततस्तस्य गुणोदधेः । ।।८।। श्रीमानभयदेवाख्यः सूरिः पूरित-विष्टपः ।....।। ६६ ।। श्री जिनेश्वरसूरि की अद्भुत रचना शक्ति और संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार का परिचय कराने वाली एक घटना जैन वांग्मय में उपलब्ध होती है, वह इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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