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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
श्रीपति और श्रीधर ने अथ से इति तक, तिथिवार, वर्ष, नक्षत्र आदि सहित उस सम्पूर्ण शिलालेख को पत्रों पर लिख कर श्रेष्ठी को समर्पित कर दिया । श्रेष्ठी ने उसे पढ़ा तो उसके नयन युगल से हर्षाश्रु छलक उठे । उसने उन पत्रों को अपने उन्नत भाल से लगा विशाल वक्षस्थल से, हृदय से चिपका लिया । उसके अन्तर्मन एक पुनीत विचार धारा उद्भूत हुई – “यदि इस प्रकार के अद्भुत मेधाशक्ति सम्पन्न किशोर मेरे गुरुवर आराध्य प्राचार्य देव को मिल जायें तो निश्चित है कि जिन शासन एक बार पुनः आर्यधरा के क्षितिज में सूर्य के समान दैदीप्यमान हो जगती तल को अध्यात्म ज्ञान की अलौकिक आभा से प्रोत-प्रोत एवं आलोकित कर दे । पूर्व संयोग की बात थी कि श्रेष्ठि के अन्तर्मन में अंकुरित हुई भव्य भावना - वल्लरी शीघ्र ही फलवती भी हो गई ।
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श्रेष्ठी लक्ष्मीपति ने उन दोनों द्विज किशोरों को बड़े सम्मान के साथ अपने घर पर ही रख लिया और उनके भोजन - पान-वस्त्र आदि की व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध कर दिया । श्रीपति और श्रीधर भी श्रेष्ठी के घर में प्रानन्दपूर्वक रहने लगे ।
उन दोनों ब्राह्मण किशोरों को श्रेष्ठी के घर रहते हुए थोड़े ही दिन बीते होंगे कि महान् क्रियोद्धारक प्राचार्य वर्द्धमानसूरि का धारा नगरी में पदार्पण हुआ । श्रेष्ठी लक्ष्मीपति दोनों द्विज कुमारों के साथ प्राचार्य श्री के दर्शन, नमन एवं प्रवचन श्रवरण के लिए धर्मस्थान में पहुंचा । श्रेष्ठी ने श्रद्धा भक्ति पूर्वक आचार्य श्री को वन्दन - नमन किया और वह उनके समक्ष बैठ गया । श्रीपति और श्रीधर ने भी अपने अंजलिपुटों को भाल से लगा वर्द्धमानसूरि को प्रणाम किया और दोनों भाई उनके समक्ष हाथ जोड़ कर बैठ गये । पूर्व जन्म के संस्कारों का ही प्रभाव था कि उन दोनों द्विज कुमारों का अन्तर्हद ग्राह्लाद से प्रापूरित हो गया। वे दोनों निर्निमेष दृष्टि से सूरिवर के शान्तसौम्य मुखारविन्द की प्रोर देखते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो दो मधु लोलुप भ्रमर दिव्य पारिजात पुष्प पा अपनी सुधबुध भुला एकमात्र उसका मधुपान करने में निमग्न हों ।
उन दोनों द्विज किशोरों की मुखाकृति प्रांखों की चमक, और सामुद्रिक लक्षणों से युक्त भव्य व्यक्तित्व को देखकर वर्द्धमानसूरि ने अनुभव किया कि ये दोनों किशोर आत्म-विजय के साथ-साथ पर - विजय करने में भी सर्वथा समक्ष होंगे ।
वर्द्धमानसूरि का उपदेश सुन कर श्रीपति और श्रीधर दोनों ही बन्धुत्रों को दृश्यमान जगत् की क्षरण भंगुरता, भौतिक भोगोपभोगों की निस्सारता और अध्यात्म साधना की दृष्टि से मानव जन्म की महत्त्वपूर्ण महनीयता के बोध के साथसाथ संसार से, संसार के समस्त कार्य-कलापों से, नाते-रिश्तों से विरक्ति हो गई । उन्होंने वर्द्धमानसूरि से प्रार्थना की कि वे उन दोनों भाइयों को श्रमण-धर्म में दीक्षित कर सदा के लिए अपने चरणों की श प्रदान करें ।
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