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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
[ १३५ प्राचार्य जिनचन्द्र सूरि ने “गणधर सार्द्धशतक" नामक कृति में चैत्यवासियों के पराजय की घटना का इस प्रकार वर्णन किया है :
अणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसिय सुपत्तसंदोहे । पउरपए बहुकविदूसगेये नायगाणुगए ॥६५॥ सड्ढिय दुल्लह राये, सरस्सइ अंकोवसोहिए सुहए। मज्झे रायसह, पविसिउरण लोयागमाणुमयं ।।६६।। नामायरिएहिं समं, करिय वियारं वियाररहिएहिं ।
वसहि निवासो साहूणं ठावियो ठाविप्रो अप्पा ॥६७।।
श्री वर्द्धमानसूरि विक्रम सं. १०८० तद्नुसार वीर नि. सं. १५५० के प्रास-पास पाबू पर्वत पर समाधि पूर्वक स्वर्गस्थ हुए।
वर्द्धमानसूरि ने अपने जीवनकाल में ही अपने पट्ट शिष्य जिनेश्वरसूरि को अपना पट्टधर घोषित कर प्राचार्य पद प्रदान कर जिनेश्वरसूरि के लघुभ्राता मुनि वुद्धि सागर को भी प्राचार्य पद प्रदान कर दिया ।
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