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जिनेश्वरसूरि
वर्द्धमानसूरि के पश्चात् संविग्न परम्परा के प्राचार्य जिनेश्वरसूरि हुए। वर्द्धमानसूरि ने इन्हें अपने जीवन काल में ही प्राचार्य पद प्रदान कर अपना पट्टधर बना दिया था । इनके भ्राता बुद्धि सागर को भी वर्द्धमानसूरि ने आचार्य पद प्रदान किया। इन भ्रातृद्वय प्राचार्यों का जीवन परिचय 'प्रभावक चरित्र' के अनुसार इस प्रकार है :
धारा नगरी में लक्ष्मी पति नामक यथा नाम तथा गुण सम्पन्न प्रति समद्ध श्रेष्ठी रहता था। श्रेष्ठी लक्ष्मीपति बड़ा ही धर्मनिष्ठ एवं उदारमना था । वह स्वभाव से ही परोपकार परायण था।
। उस समय मध्य-प्रदेश के किसी ग्राम में रहने वाले कृष्ण नामक एक ब्राह्मण के श्रीपति और श्रीधर नामक दो पुत्र वेद-वेदांग एवं अनेक विद्याओं में पारीणता प्राप्त करने के पश्चात् देश-दर्शन हेतु अपने घर से प्रस्थित हुए । अनेक स्थानों पर घूमते हुए वे दोनों भाई धारा नगरी पहुंचे।
श्रेष्ठिवर लक्ष्मीपति की दानशीलता एवं परोपकारपरायणता की ख्याति सुनकर वे भिक्षार्थ उसके घर गये । श्रेष्ठ ने उन्हें बड़े प्रेम से भिक्षा और यथेप्सित वस्त्र-पात्रादि प्रदान किये। उन दोनों ब्राह्मण कुमारों ने कुछ दिन धारा नगरी में ठहरने का विचार किया। वे प्रतिदिन लक्ष्मीपति के घर भिक्षार्थ पाते और उन्हें लक्ष्मीपति प्रचुर मात्रा में यथेप्सित भिक्षा प्रदान करता ।
लक्ष्मीपति के घर में बैठक के पास ही एक अतिविशाल प्राचीन शिलालेख उटैंकित था। वह शिलालेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। उसमें धर्म, श्रेष्ठि के पूर्वजों, उनके द्वारा किये गये उल्लेखनीय कार्यों आदि के सम्बन्ध में तिथि, वार, वर्ष आदि उल्लेखों के साथ बड़े ही महत्त्व के विवरण उटंकित थे। श्रीपति और श्रीधर दोनों भाइयों की दृष्टि उस शिलालेख पर पड़ी। उन दोनों भाइयों ने उस शिलालेख को अन्त तक पढ़ा । वह अभिलेख उन्हें बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और रुचिकर लगा। वे दोनों भाई प्रतिदिन भिक्षार्थ जब श्रेष्ठी के घर आते तो एकाग्रचित्त हो बड़ी लगन के साथ उस शिलालेख को पढ़ते । इस प्रकार उन दोनों भाइयों ने उस अभिलेख का अवगाहन करते हुए उसे अनेक बार पढ़ा।
- एक दिन श्रेष्ठी लक्ष्मीपति के घर में आग लग गई और उसकी विपुल सम्पत्ति के साथ वह प्राचीन शिलालेख भी अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं से प्रतप्त
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