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________________ १३४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ स्व. श्री कल्याण विजयजी महाराज ने पाटण में वर्द्धमानसूरि अथवा जिनेश्वर सूरि से पाटण की राज सभा में चैत्यवासियों की पराजित होने की घटना को ऐतिहासिक घटना स्वीकार करते हुए भी पट्टावली कार द्वारा वि० सं० १०८० में इस घटना के घटित होने के उल्लेख को अविश्वसनीय ठहराते हुए लिखा है कि दुर्लभसेन का काल उपरिलिखित चालुक्य राजाओं की वंशावली के उल्लेखानुसार ई. सं.. १०१०-१०२२ तदनुसार वि० सं० १०६७ से वि० सं० १०७६ तक ही रहा। तदनुसार वि० सं० १०८० में दुर्लभसेन की सभा में जिनेश्वर सूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कैसे सम्भव हो सकता है । वास्तविकता यह है कि संवत् के उल्लेख में त्रुटि हुई है । जिनेश्वर सूरि प्रबन्ध में उल्लिखित दससय चउवीसे (१) वच्छरे ते पायरिया मच्छरिगो हारिया । जिणेसर सूरिणा जियं इन वाक्यों से स्पष्टतः प्रकट होता है कि संवत् के सम्बन्ध में इस प्रबन्ध के रचनाकार और पट्टावली कारों के मन में शंका रही स्वयं पं. श्री कल्याण विजय जी म. के ध्यान में यह बात थी । उन्होंने पट्टावली पराग संग्रह के पृष्ठ १६८ और १६६ पर दो बार वि.सं. १०२४ का "वर्द्धमान सूरि प्रबन्ध" के आधार पर उल्लेख किया । इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ३४७ पर आपने "खरगच्छीया हस्तलिखित पट्टावली" की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि वि.सं. १०८० में दुर्लभ राज की सभा में जिनेश्वर सूरि ने चैत्यवासियों को पराजित किया। इन सब उल्लेखों पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि इस ऐतिहासिक महत्व की घटना के उल्लेख में कहीं कोई त्रुटि रह सकती है । किन्तु वह त्रुटि नगण्य है। विक्रम संवत् को ई. संवत् में बदलने पर अधिक मास आदि की गणना के कारण वि.सं. १०८० का ई. सन् १०२२-२३ होना चाहिए। संभव है वि.सं. १०७६ के अवसान काल में दुर्लभसेन की सभा में शास्त्रार्थ हुआ हो और पट्टावली लेखक ने १०७६ के स्थान पर १०८० लिख दिया हो। वस्तुतः देखा जाय तो यह कोई ऐसी बड़ी त्रुटि नहीं है कि जिसके आधार पर ऐतिहासिक घटना को ही विवादास्पद मान लिया जाय । शिलालेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर काल क्रम निर्धारित करने में तो प्रायः वर्ष दो वर्ष का अन्तर रह जाना संभव है । अणहिल्लपुर पट्टण में दुर्लभराज की राज्य सभा में जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुजरात में पुनः वसतिवास की स्थापना की. इस घटना की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता सिद्ध करने वाला सर्वाधिक प्रबल प्रमाण है जिनेश्वर सूरि के पट्ट शिष्य जिनचन्द्र सूरि द्वारा इस घटना के कुछ ही समय पश्चात् प्रणीत गरगधर सार्द्धशतक काएतद्विषयक उल्लेख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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