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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ १३३ कर दिये जाने के उपरान्त भी पुनः पुनः क्रियोद्धारों की, आवश्यकता क्यों हुई ? इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर है कि प्राध्यात्म-साधना कष्ट साध्य है और द्रव्य साधना सुसाध्य है। अध्यात्म साधना अन्तःकरण में अलौकिक प्रकाश प्रकट करने वाली है और द्रव्य साध्य भौतिक साधना तत्काल सम्मान, प्रतिष्ठा, यश आदि लोकेषणाओं की पूरक होने के कारण सद्यः फल प्रदायिनी । अध्यात्म साधना का पथ विकट, बीहड़ और नीरस है, जबकि भौतिक साधना का पथ धूम धड़ाके से मुखरित, लोकसंकुल एवं कलरव कल्लोल कुतूहल से परिपूर्ण है। यही प्रमुख कारण था कि लोकप्रवाह, द्रव्य साधना की सूत्रधार द्रव्य परम्पराओं की ओर उमड़ पड़ता। वर्द्धमानसूरि से पूर्व भी समय-समय पर क्रिया निर्धारण के माध्यम से चतुर्विध संघ को शास्त्र सम्मतविशुद्ध धर्म पथ पर पारूढ़ करने के प्रयास महापुरुषों द्वारा किये गये थे, इनके उल्लेख जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते हैं । किन्तु वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रारम्भ किया गया क्रियोद्धार का अभियान बड़े ऐतिहासिक महत्व का था। वर्द्धमानसूरि और उनके जिनेश्वरसूरि आदि शिष्यों के द्वारा केवल आगमों को ही प्रामाणिक मान्य किये जाने का खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में बड़े ही सुन्दर ढंग से विवरण दिया गया है। राजपिण्ड को नितान्त अग्राह्य मान कर उन्होंने अपहिल्लपत्तन में मधुकरी के माध्यम से ४२ दोष टाल कर एषणीय आहार ग्रहण किया। वे निर्दोष वसति में रहे। पट्टावली के उल्लेखानुसार उनके श्रमण जीवन में आडम्बर अथवा परिग्रह के लिए अवकाश तक नहीं था। किन्तु इनके उत्तरवर्ती काल में इन्हीं के पट्टधरों की श्रमण चर्या शुद्ध, निर्दोष एवं उनकी श्रमण चर्या के अनुरूप नहीं रही। जैन इतिहास के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् स्व. पंन्यास श्री कल्याण विजय जी महाराज ने—“खरतरगच्छीया हस्तलिखित पट्टावली" में "दुर्लभराज द्वारा जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद दिया गया"-इस उल्लेख का खण्डन करते हुए ताम्रपत्रों और शिलालेखों के आधार पर तैयार की गई अणहिल्लपुरपत्तन के सोलंकी (चालुक्य) राजाओं की काल निर्देश के साथ-साथ एक वंशावली दी है, जो इस प्रकार है : (१) मूलराज, ई. ९४२-६६७, वि० सं० ६६६-१०५४ (२) चामुण्ड ई. ६६७-१०१० (३) वल्लभसेन ई. १०१०-१० (४) दुर्लभसेन ई. १०१०१०२२ वि० सं० १०६७-१०७६ (५) भीमदेव (प्रथम) १०२२-१०७२, वि० सं० १०७६-११२६ (६) करण ई. १०७२-१०६४, ११२६-११५१ (७) सिद्धराज ई. १०६४-११४३ (८) कुमार पाल ई. ११४३-११७४ (8) अजयपाल ई. ११७४-११७७ (१०) मूलराज (द्वितीय) ई. ११७७-११७९ (११) भीमदेव (द्वितीय) ई. ११७६-१२४१ (१२) त्रिभुवनपाल ई. १२४१-१२४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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