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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
सम्पदा ग्रहण कर शास्त्रों के अध्ययन से सुविहित संविग्न परम्परा के प्रसार का प्रयास प्रारम्भ किया।
प्रथम क्रियोद्धार अगहिल्लपुरपत्तन में, खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार १ स्वयं वर्द्धमान सूरि ने जिनेश्वर प्रभृति अपने १७ शिष्यों सहित दुर्लभ राज की सभा में जाकर सूराचार्य आदि चौरासी चैत्यवासी प्राचार्यों को पराजित किया और "वृद्धाचार्य प्रबन्धावली" के जिनेश्वर सूरि प्रबन्ध के उल्लेखानुसार२ वर्द्धमानसूरि के स्वर्गस्थ होने के उपरान्त अपने गुरु की अन्तिम इच्छानुसार अहिल्लपुर के महाराजा दुर्लभराय की सभा में वि. सं. १०२४ (दूसरी मान्यता १०८०) में चैत्यवासियों के ८४ गच्छों के भट्टारकों (प्राचार्यों) को शास्त्रार्थ में पराजित कर चैत्यवासियों के शताब्दियों से केन्द्र के रूप में चले आ रहे सुदृढ़ गढ़ को तोड़ दिया।
सुविहित श्रमण परम्परा में संविग्न आम्नाय के प्राचार्य वर्द्धमानसूरि अथवा उनके शिष्य जिनेश्वर सूरि की चैत्यवासियों पर इस विजय के अनन्तर शनैः शनैः चैत्यवासी परम्परा का निरन्तर ह्रास होता ही गया।
वर्द्धमानसूरि ने किस प्रकार क्रियोद्धार कर चैत्यवासियों को पराजित किया और इनके शिष्य प्रशिष्य किस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन एवं सुविहित परम्परा के प्रचार-प्रसार के लिये प्रयास करते रहे, इस पर पिछले प्रकरणों में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है, अतः यहां उसके पुनरुल्लेखन अथवा पिष्टपेषरण की आवश्यकता नहीं।
१. गुरुभि (वर्द्धमान सूरिभिः) भरिणतम्"एवं पण्डित जिनेश्वर उत्तर प्रत्युत्तरं यद्भणिष्यति तदस्माकं सम्मतमेव ।'
-खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ३
२.
गुरुणा जुग्गं जाणिऊरण नियपट्टे ठविप्रो । जिणेसर सूरि इइ नामं कयं । पच्छा वद्धमारण सूरि असणं काऊण देव लोगं पत्तो। तो जिणेसरसूरि गच्छ-नायगो विहरमाणो वसुहं अणहिल्लपुरपट्टणे गयो। तत्थ चुलसी गच्छवासिगोभट्टारगा दवलिंगिणो मढवइगो चेइयवासिणो पासइ । पासित्ता जिण सासणुन्नइकए सिरि दुल्लहराय सभाए वायं कयं । दस सय चउवीसे वच्छरे ते पायरिया मच्छरिणो हारिया । जिणेसर सूरिणा जियं
. -वही, पृ. ६०
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