SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर निर्वारण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण अर्थात् हारिलसूरि के युग प्रधानाचार्य पद पर आसीन होने के अनुमानतः ढाई दशक व्यतीत हो जाने के पश्चात् से लेकर वीर निर्वाण की १६वीं शताब्दी के लगभग आठवें अथवा नवमें दशक के अन्त तक के काल को जैन धर्म के इतिहास में मोटे रूप से चैत्यवासी परम्परा के चरमोत्कर्ष काल की संज्ञा दी जा सकती है । 1 वर्द्धमानसूरि (चैत्यवासी परम्परा के ह्रास का प्रारम्भ ) अरण्यचारी उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में जो भी यत्किचित् सामग्री जैन वाङ्मय में उपलब्ध होती है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तरी भारत में सम्पूर्ण गुर्जर प्रान्त से लेकर इसके चारों ओर के दूरवर्ती प्रदेशों तक चैत्यवासी परम्परा का वर्चस्व विद्यमान था । सुविहित परम्परा के साधु प्रति स्वल्प संख्या में अवशिष्ट रह गए थे, और जो भी थे वे सुदूरस्थ प्रदेशों में संभवत: लोक दृष्टि में एक प्रकार से उपेक्षित दशा में विचरण कर रहे थे । यही कारण था कि प्रभोहर' के चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवास का परित्याग कर सदाचार सम्पन्न सुविहित परम्परा के किसी विद्वान् प्राचार्य अथवा साधु के पास अध्ययनार्थ उप सम्पदा ग्रहरण करने का विचार किया तो उन्हें चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर भी प्रास-पास में सुविहित परम्परा का ऐसा विद्वान् श्रमण दृष्टिगोचर नहीं हुआ । खोज करने पर उन्हें दिल्ली क्षेत्र के आस-पास विचरण करते हुए अरण्यचारी उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में समाचार मिले । वर्द्धमानसूरि को उनके गुरु ने सुरि पद प्रदान कर चैत्यवासी परम्परा में ही रहने के लिये प्रलोभन भी दिया किन्तु वर्द्धमान आचार्य के अन्तर्चक्षु उन्मीलित हो चुके थे अतः उन्होंने दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में विचरण कर रहे वनवासी प्राचार्य उद्योतनसूरि के पास उप १. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली ( पृष्ठ १) में "प्रभोहर देशे जिनचन्द्राचार्या .... 'आसन् । तेषां वर्द्धमान नामा शिष्यः ।" इस प्रकार के उल्लेख से इन्हें अभोहर देश का बताया है । प्रभावक चरित्र में वर्द्धमानसूरि को सपादलक्ष प्रदेश के कूर्चपुर के ८४ चत्यों के माठपत्य का त्यागी बताया है । 1 देखो प्रभावक चरित्र पृष्ठ १६२, श्लोक संख्या ३१-३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy