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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1
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वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये इस क्रियोद्धार का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है । इस क्रियोद्धार की ऐतिहासिक घटना के उत्तरकालीन जैन इतिहास के विहंगमावलोकन से स्पष्टतः यह तथ्य प्रकाश में आता है कि न केवल साधु-साध्वी वर्ग में ही अपितु जनमानस में भी जैन धर्म के शुद्ध स्वरूप को समझने की प्रबल जिज्ञासा तरंगित हो उठी थी । वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार का सुखद परिणाम यह हुआ कि जब-जब भी जैन संघ में धर्म के नाम पर बाह्याडम्बर का प्रभाव बढ़ा तब-तब आत्मार्थी सन्तों ने उसे सही राह पर लाने का प्रयत्न किया ।
जनमानस में धर्म के शुद्ध स्वरूप के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ उसी का यह परिणाम था कि वीर निर्वाण की सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के पश्चात् क्रियोद्धारों की एक प्रकार से श्रृंखला सी बन गई ।
वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर पच्चीसवीं शताब्दी तक हुए अधिकांश गच्छों की उत्पत्ति के पीछे किसी न किसी रूप में क्रियोद्धार का ही इतिहास छिपा हुआ है । बड़े से लेकर छोटे से छोटे मतभेद को आधार बनाकर अनेक गच्छों की उत्पत्ति हुई है, किन्तु ध्यान से देखा जाय तो वह मतभेद भी किसी न किसी क्रिया विशेष या मान्यता को लेकर ही हुआ, ऐसा प्रतीत होगा ।
एक मनोवैज्ञानिक तथ्य इन क्रियोद्धारों में यह देखने में आया कि जिन साहसी महापुरुषों ने अनेक कष्ट उठाकर जो क्रियोद्धार किये, कालान्तर में उन्हीं के शिष्य - प्रशिष्य पुनः शिथिलाचारी बन गये । जैसे इन्हीं वर्द्धमानसूरि की परम्परा कालान्तर में यतियों जैसी बन गई । यतियों में और इनमें कोई अन्तर नहीं रह गया । इस सम्बन्ध में विक्रम की १६वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा में बनाई गई खरतरगच्छ पट्टावली का निम्नलिखित गद्य इस गच्छ के आचार्य और अन्य गच्छों के श्रमरणों के श्रमरण जीवन की स्थिति का दिग्दर्शन कराता है
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१.
फाल्गुन सुदि २ दिने सर्व तपागच्छीयादि प्राचार्य साधूनुपत्यकायां संरोध्य श्री जिन महेन्द्र सूरयः सर्व संघपतिभिः सार्द्धं श्री मूलनायक जिनगृहाग्रतो गत्वा विधिना सर्वेषां कण्ठेषु संघमालाः स्थापिताः, अन्य गच्छीयाचार्याणां कौशिकानामिव मनोभिलाषं मनस्येव स्थितं, खरतर - गच्छेश्वर-सूर्योदयतेज प्रकरत्वात्तदनुत्तीर्य गीतगान तुर्यवाद्यमानगजाश्वशिविकेन्द्रध्वजादिमहर्ध्या पादलिप्त पुरे जिनगृहे दर्शनं विधाय तपागच्छाचार्यस्थितोपाश्रयाग्रतो भूत्वा संघवासेऽयासिषु, भूयोऽपि तत्रस्थ चतुरशीतिगच्छीय द्वादशशतसाधुवर्गेभ्यो महावस्त्र - रूप्यमुद्रायुग्मं प्रत्येकं प्रदत्तानि, तदवसरे श्रीमत् पूज्यैर्बहुद्रव्यव्ययं कृतम्, तत् सम्बन्धः पूर्ववत् पुनः । १
पट्टावली पराग संग्रह ( पंन्यास श्री कल्याण विजय जी ) पृष्ठ ३७४- ३७६
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