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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ १२५ प्राचार्य मानने की भ्रान्ति संभवतः विगत कतिपय शताब्दियों से ही चली पा रही है। श्री दान सागर ग्रंथ भण्डार से उपलब्ध गुर्वावली में जो उल्लेख किया गया है कि ८३ विभिन्न साधु समुदायों के स्थविरों ने अपने-अपने समुदाय से एकएक मेधावी मुनि को उद्योतनसूरि नामक चरित्रनिष्ठ श्रमणश्रेष्ठ के पास शास्त्रों के अध्ययन हेतु भेजा और अध्ययन के पूर्ण होने पर उन ८३ विद्वान् साधुओं को उद्योतनसूरि ने प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया, यह उल्लेख वस्तुतः सभी दृष्टिकोणों से विचार करने पर बुद्धिगम्य अथवा युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वीर निर्वाण से लेकर वर्तमान काल तक के जैन इतिहास पर गंभीरतापूर्वक दृष्टिनिपात करने पर सूर्य के समान यह तथ्य प्रकट होता है कि विगत ढाई हजार वर्ष जैसी सुदीर्घावधि में एक ही गच्छ में एक समय में ८४ आचार्य बनाने की इसके अतिरिक्त अन्य किसी घटना का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, एक ओर तो तत्कालीन जैन वाङ्मय में स्थान-स्थान पर इस प्रकार के उल्लेख भरे पड़े हैं कि वीर निर्वाण १००० वर्ष से उत्तरवर्ती काल में विशेषतः वीर निर्वाण सं. १५५० तक और सामान्यतः वीरनिर्वाण की २०वीं शताब्दी तक भारतवर्ष के अनेक विशाल प्रदेशों में चैत्यवासी परम्परा और इसी प्रकार की द्रव्य परम्पराओं का (शिथिलाचारी परम्पराओं का ) प्रभुत्व अथवा वर्चस्व रहने के कारण आगमानुसारिणी निग्रंथ सुविहित श्रमण परम्परा विरलप्राया ही अवशिष्ट रह गई थी। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर प्रभु महावीर द्वारा प्रणीत एवं गणधरों द्वारा ग्रथित निर्ग्रन्थ प्रवचनों को अन्धकारपूर्ण गहरे गह वरों में बंद कर उन पर ताले लगा दिये गये थे। इसके विपरीत दूसरी ओर इस प्रकार का उल्लेख किया जाता है कि उद्योतनसूरि ने वि. सं. ६६४ (वी. नि. सं. १४६४) में अपने गच्छ, में एक नहीं दो नहीं ८४ प्राचार्य पदों का निर्माण कर अपने ८४ शिष्यों को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया, इस पर कोई भी विज्ञ विचारक अांखें मूंद कर अंधविश्वास नहीं कर सकता। एक ही गच्छ में ८३ अथवा ८४ प्राचार्यों की स्थापना उसी दशा में की जानी न्याय-संगत अथवा उचित मानी जा सकती है, जबकि उस गच्छ में साधु-साध्वियों की संख्या ८४,००० या ८,४०० हो । चैत्यवासियों का वर्चस्वकाल वस्तुतः सुविहित श्रमण परम्परा के लिए घोर संकटकाल था और संक्रान्ति काल में सुविहित श्रमण परम्परा के साधुओं की संख्या विरल, नगण्य अथवा अंगुलियों के पौरों पर गिनने योग्य भी नहीं रह गई थी, इस प्रकार का उद्घोष तत्कालीन जैन साहित्य डिण्डिम घोष के साथ कर रहा है । इस प्रकार की स्थिति में इन सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर बीकानेर के दानसागर ज्ञान भण्डार की गुर्वावली के ऊपर उद्ध त किये गये गद्यांश में सत्य की थोड़ी सी झलक दृष्टिगोचर होती है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन (गरिमपिटक) के अपने समय के अप्रतिम विद्वान् सुविहित श्रमण परम्परा के क्रियापात्र किन्तु शिष्य सन्तति विहीन श्रमण श्रेष्ठ उद्योतनसूरि नामक प्राचार्य के पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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