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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -भाग ४
क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि और अन्यान्य ८३ साधु समूहों के स्थविरों द्वारा आगमों के अध्ययन एवं आगमानुसारी श्रमणाचार के वास्तविक स्वरूप का बोध प्राप्त करने के लिए भेजे गये ८३ मेधावी शिष्यों ने उन शिष्य संतति विहीन उद्योतनसूरि के पास प्रागमिक श्रमणाचार और आगमों का ज्ञान प्राप्त किया। रात्रि में ग्रह नक्षत्रों की गति को देख कर उद्योतनसूरि ने उन ८३ शिक्षार्थी शिष्यों को उस समय के अतीव शुभ मुहूर्त एवं उनके फल पर प्रकाश डालते हुए बताया कि यदि इस शुभ वेला में किसी के मस्तक पर हाथ रख कर यदि उसे प्राचार्य पद प्रदान कर दिया जाय तो वह भविष्य में विपुल प्रसिद्धि प्राप्त करने वाला होता है। विभिन्न ८३ श्रमण समूहों के स्थविरों के शिष्यों की प्रार्थना पर उद्योतनसूरि ने अपने उन ८३ शिक्षार्थी शिष्यों के सिर पर क्रमशः अपना हाथ रखते हुए औपचारिक रूप से उन्हें प्राचार्य पद प्रदान कर दिये।
प्रमाणाभाव में सुनिश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता किन्तु इस उल्लेख पर गम्भीरता से विचार करने पर यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि इस गुर्वावली में "अशीतिश्च इमे अन्यदीया" इस पद में वरिणत उन ६३ शिष्यों में से कतिपय द्रव्य परम्पराओं के, कतिपय चैत्यवासी परम्परा के गच्छों और सम्भवतः एक दो और नाममात्रावशिष्ट सुविहित परम्परा के साधु थे।
_हमारे इस अनुमान की पुष्टि बड़गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि के पट्टधरों से प्रारम्भ हुई परम्पराओं की पट्टावलियों से भी होती है। उद्योतनसूरि के अन्य सात पट्टधरों से जो सात परम्पराएं जैन संघ में प्रचलित हुईं, वे इस प्रकार हैं :
पहली परम्परा
१. उद्योतनसूरि
आचार्य सर्वदेवसूरि __ प्राचार्य देवसूरि __ प्राचार्य सर्व देवसूरि
आचार्य नेमिचन्द्र ६. प्राचार्य मुनिचन्द्र
प्राचार्य अजितदेव __ प्राचार्य वादिदेव
वि० सं० ०६६४
१०२० १११० ११२६ ११३६
११७८
१२२६
दूसरी परम
१. प्राचार्य उद्योतनसूरि २. प्राचार्य सर्वदेवसूरि
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