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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
तस्माच्च विमलचन्द्रः स हेमसिद्धिर्बभूव सूरिवरः । उद्योतनश्च सूरिः, शोषित दुरितांकुरव्यूहः ।। अथ युगनवनन्द (९६२) मिते, वर्षे विक्रमादतिक्रान्ते । पूर्वावनितो विहरन्, सोऽर्बुदसुगिरेः सविधमागात् ।। . तत्र च टेलीखेटक-सीमावनिसंस्थो वरवटाधः ।
सुमुहूर्ते सूपदेष्टान् सूरीन् संस्थापयामास ।। ख्यातस्तो गणोऽयं वटगच्छवहोऽपि वृद्ध गच्छ इति । ग० । पं० बं० । ६६४ मालवदेशात् शत्रुजयं गच्छन् मार्ग एव देवलोकं गतः । जै. इ. ॥
अर्थात् उद्योतनसूरि बड़गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे । वे देवसूरि के प्रशिष्य आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य और प्राचार्य वर्द्धमानसूरि के गुरु थे। पूर्वी भारत से विहार कर उद्योतनसूरि वि० सं० ६६२ में आबू पर्वत की तलहटी के टेलि खेटक नामक ग्राम की सीमा में अवस्थित विशाल वटवृक्ष के नीचे पहुँचे । वहाँ (रात्रि में) शुभ मुहूर्त देखकर उद्योतनसूरि ने अपने विद्वान् शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान किये ।' उन उद्योतनसूरि का वि० सं० ६६४ में मालवा प्रदेश से शत्रुजय तीथे की ओर जाते हुए मार्ग में ही स्वर्गवास हो गया ।"
तपागच्छ की पट्टावलियों, गुर्वावलियों और खरतरगच्छ की गुर्वावली में उद्योतनसूरि के पूर्वाचार्यों तथा उत्तराधिकारियों के क्रमनाम आदि के सम्बन्ध में। किस प्रकार का आकाश पाताल जैसा अन्तर है, इसका विज्ञ पाठक इन दोनों पट्टावलियों के निम्नलिखित उल्लेखों से सहज ही अनुमान लगा सकते हैं :महोपाध्याय श्री धर्मसागर गरिण
क्षमाकल्यारण उपाध्याय द्वारा द्वारा रचित
रचित श्री तपागच्छपट्टावली सूत्रं
खरतरगच्छ गुर्वावली (१८३०) दानस्वोपज्ञवृति सहित :
सागर जैन ज्ञान-भण्डार, बीकानेर :३०. श्री रविप्रभसूरि
२६. श्री मानदेवसूरि ३१. श्री यशोदेवसूरि
३०. श्री बिबुधप्रभसूरि ३२. श्री प्रद्युम्नसूरि
३१. श्री जयनन्दसूरि ३३. श्री मान देवसूरि
३२. श्री रविप्रभसूरि ३४. श्री विमलचन्द्रसूरि
३३. श्री यशोभद्रसूरि ३५. श्री उद्योतनसूरि
३४. श्री विमलचन्द्रसूरि ३६. श्री सर्वदेवसूरि
३५. श्री देवसूरि (सुविहित प्राद्याचार्य) ३७. श्री देवसूरि
३६. श्री नेमिचन्द्रसूरि
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३. (क) गच्छाचार पइण्णय वृत्ति (ख) पंचवस्तुक टीका.
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