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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] उद्योतनसूरि [ ११६ ३८. श्री सर्वदेवसूरि ३६. श्री यशोभद्रसूरि और ४०. श्री नेमिचन्द्रसूरि ३७. श्री उद्योतनसूरि ३८. श्री वर्द्धमानसूरि ३६. श्री जिनेश्वरसूरि इन दोनों पट्टावलियों में परस्पर बड़ा वैभिन्य एवं विरोध स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा है। तपागच्छ पट्टावली में पट्टधर क्रम संख्या ३१ और ३२ पर उल्लिखित प्राचार्यों के नाम खरतरगच्छ पट्टावली में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। ३३वें पट्टधर मानदेवसूरि को तपागच्छ पट्टावली में प्रद्युम्नसूरि का शिष्य तथा विमलचन्द्रसूरि का गुरु बताया गया है । इसके विपरीत खरतरगच्छ पट्टावली में इन्हें २६वां पट्टधर, श्री समुद्रसूरि का शिष्य और विबुधप्रभसूरि का गुरु बताया गया है। इस प्रकार इन दोनों पट्टावलियों में इस भांति का घोर अन्तर है कि इन दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से ऐतिहासिक तथ्यों की खोज का प्रयास अन्ततोगत्वा बालुका से तेल निकालने तुल्य निरर्थक ही सिद्ध होगा। वि० सं० १०८० में सम्भवतः दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ के पश्चात् श्री जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि ने जाबालिपुर (जालोर) नगर में चातुर्मास किया। उस चातुर्मासावधि में जिनेश्वरसूरि ने हरिभद्राष्टक टीका और बुद्धिसागरसूरि ने "बुद्धिसागर व्याकरण" की रचना की। इन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में भी उन आचार्य द्वय ने वर्द्धमानसूरि के गुरु के रूप में न तो उद्योतनसूरि का नामोल्लेख किया है और न किसी अन्य प्राचार्य का अथवा खरतरगच्छ का ही। - इस प्रकार नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि द्वारा, भारत के विशाल प्रदेश पर शताब्दियों से अपना एकाधिपत्य स्थापित किये बैठी चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को सदा-सदा के लिए समाप्त कर जिनधर्म एवं श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप को प्रकाश में लाने वाली एक महान् क्रान्ति के सूत्रधार अपने प्रगुरु के गुरु उद्योतनसूरि का नामोल्लेख तक न किये जाने आदि उपरिवरिणत तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में क्षीर-नीर विवेकपूर्ण दृष्टि से विचार करने पर यही तथ्य प्रकाश में आता है कि वर्द्धमानसूरि के गुरु वे उद्योतनसूरि नहीं थे जिन्होंने कि बड़गच्छ की स्थापना की। वस्तुतः वर्द्धमानसूरि ने विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उषःकाल में किन्हीं अज्ञात नामा ऐसे प्राचार्य के पास चारित्रिक एवं आगमिक अध्ययन की उपसम्पदा ग्रहण की जो चैत्यवासी परम्परा अथवा द्रव्य परम्पराओं के वर्चस्वकाल में नितान्त उपेक्षित अत्यधिक गौण रूप में अवशिष्ट रही, मूल विशुद्ध श्रमण परम्परा के शिष्य सन्तति विहीन प्राचार्य थे। इन सबल ठोस तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही अनुमान किया जा सकता है कि आनंद विमलसूरि आदि की भांति वर्द्धमानसूरि ने भो किसी आचार्य के पास उपसम्पदा ग्रहण किये बिना ही क्रियोद्धार किया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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