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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] उद्योतनसूरि [ ११७ विहीन आचार्य द्वारा ८३ अन्यान्यगच्छों के स्थविरों के ८३ शिष्यों को शास्त्रों का गहन ज्ञान प्रदान किये जाने के अनन्तर वटवृक्ष के नीचे कण्डे काष्ठ आदि के चूर्ण का उन शिष्यों के ऊपर वासक्षेप किया गया और वे सभी ८३ मुनि यशस्वी प्राचार्य बने । इस घटना से पर्याप्त समय पूर्व चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर अपनी शरण में आये हुए ज्ञान पिपासु शिष्य वर्द्धमानसूरि को उद्योतनसूरि द्वारा प्राचार्य पद प्रदान किये जाने का भी खरतरगच्छ की पूरक पट्टावलियों में उल्लेख है, उसके आधार पर यदि वर्द्धमानसूरि को तपागच्छ पट्टावलियों अथवा गुर्वावली में भगवान् महावीर के ३५वें पट्टधर के रूप में उल्लिखित विशाल संतति वाले उद्योतनसूरि को ही वर्द्धमानसूरि का गुरु मान लिया जाय तो उस दशा में जिस समय वर्द्धमानसूरि दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में उपस्थित हुए, उस समय उनकी आयु १४०-१५० के लगभग होनी चाहिए। बड़गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि से वर्द्धमानसूरि का गुरु-शिष्य सम्बन्ध जोड़ने के लिये खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के पृष्ठ ६० पर जिनेश्वरसूरि प्रबन्ध में चैत्यवासियों के साथ हुए श्री जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का समय ५६ वर्ष पूर्व ले जाते हुए वि० सं० १०८० के स्थान पर वि० सं० १०२४ लिख दिया गया है, यथा : ..........तो जिनेश्वरसूरिगच्छनायगो विहरमाणो वसुहं अणहिल्लपुरपट्टणे गयो । तत्थ चुलसी गच्छवासिणो भट्टारगा, दवलिगिणों मढ़वइणो चेइयवासिणो पासइ । पासित्ता जिणसासणुन्नइकए सिरिदुल्लहरायसभाए वायं कयं । दससय चउवीसे (१) वच्छरए ते पायरिया मच्छरिणो हारिया जिणेसर सूरिणा जियं।" वस्तुतः वि० सं० १०२४ में न तो जिनेश्वरसूरि का ही अस्तित्व था और न दुर्लभराज का ही। इस बिना सिर पैर के अप्रमाणिक उल्लेख के पीछे प्रबन्धकार की यही भावना प्रतीत होती है कि वह जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्द्धमानसूरि को वि० सं० ६६४ में बड़गच्छ की स्थापना के अनन्तर स्वर्गस्थ हुए उद्योतनसूरि का शिष्य सिद्ध करना चाहता था। इस प्रकार की स्थिति के उपरान्त भी अभिधान राजेन्द्र कोष में तपागच्छीय पट्टावली से भिन्न उल्लेख द्वारा भगवान् महावीर के ३७वें पट्टधर उद्योतनसूरि२ को वर्द्धमानसूरि का गुरु बताते हुए लिखा है :-- "उज्जोयणसूरि-उद्योतनसूरि-पु० देवसूरि-शिष्य नेमिचन्द्र शिष्ये वर्द्धमानसूरि गुरौ वट गच्छस्य प्रथमाचार्य : __ १. अभिधान राजेन्द्र भाग २ पृष्ठ ७४५ २. दानसागर जैन ज्ञानभण्डार बीकानेर से उपलब्ध गुर्वावली (पो. १० ग्रं. (स) १५२ सं. १८३० में क्षमाकल्याण उपाध्याय द्वारा रचित पृष्ठ ८ देखें। (इसकी फोटो स्टेट प्रति श्री विनयचन्द्रज्ञान भण्डार में विद्यमान है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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