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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
उद्योतनसूरि
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अवस्था में चैत्यवास का परित्याग कर उपेक्षित एवं क्षीण बनी हुई विशुद्ध श्रमण परम्परा के क्रियानिष्ठ श्रमण श्रेष्ठ उद्योतनसूरि जैसे समर्थ सच्चे गुरु को खोजने में भी थोड़ा-बहुत समय लगा होगा। तदुपरान्त उद्योतनसूरि के पास उपसंपदा ग्रहण करने के अनन्तर अगाध सागर तुल्य आगमों के अध्ययन करने और उनमें निष्णात होने में भी कम से कम १२ वर्ष का समय उन्हें अवश्य लगा होगा। इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वर्द्धमानसूरि ने लगभग ५० वर्ष की अपनी आयु हो चुकने के पश्चात् उद्योतनसूरि से प्राचार्यपद प्राप्त किया होगा । इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर जिस समय वर्द्धमानसूरि ने उद्योतनसूरि की सेवा में रहते हुए आगम ज्ञान में निष्णातता के साथ-साथ आचार्य पद प्राप्त किया उस समय उनकी वय ५० के लगभग होनी चाहिये।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार दुर्लभराज की सभा में बर्द्धमानसूरि की विद्यमानता में उनकी अनुमति से उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सूराचार्य आदि चैत्यवासी आचार्यों से शास्त्रार्थ कर उन पर विजय प्राप्त की।' दुर्लभराज का राज्य काल वि. सं. १०६७ से १०७६-८०तक ई. स. १०१० से १०२२ तक का इतिहास सिद्ध है । तपागच्छपट्टावली के उल्लेखानुसार विमलचन्द्र सूरि के शिष्य उद्योतन-सूरि ने वि. सं. ६६४ में बड़गच्छ की स्थापना कर आचार्यपद के कर्तव्यों अथवा कार्यभार से निवृत्ति ली।
इस प्रकार की स्थिति में वर्द्धमानसूरि तपागच्छ की पट्टावली के ३५वें पट्टधर प्राचार्य के शिष्य किसी भी दशा में नहीं हो सकते । क्योंकि वि. सं. १६४ में ५० वर्ष की अवस्था को प्राप्त वर्द्धमानसूरि की आयु विक्रम संवत १०८० में चालुक्यराज की राज सभा में उपस्थित होने की दशा में १३६ वर्ष (५० प्लस ८६=१३६) तक पहुँचती है।
___ इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि तपागच्छ पट्टावली के ३५वें पट्टधर उद्योतनसूरि से सुनिश्चितरूपेण वर्द्धमानसूरि के गुरु अरण्यचारीसूरि वस्तुतः कोई भिन्न एवं पश्चाद्वर्ती तथा उस समय प्रतिक्षीण अवस्था में प्रवशिष्ट रही, उपेक्षित एवं नितान्त गौण बनी मूल विशुद्ध श्रमण परम्परा के शिष्य सन्तति-विहीन प्राचार्य थे। जहां तक वर्द्धमानसूरि के गुरु की क्रमबद्ध गुरु परम्परा का प्रश्न है, मूल परम्परा के क्षीण अथवा उपेक्षित हो जाने के परिणाम स्वरूप वह (गुरु परम्परा) विस्मृति के गर्त में विलीन हो गई प्रतीत होती है। इस प्रकार की स्थिति प्राचीन इतिहास के
१. गुरुभिः (वर्द्धमानसूरिभिः) भरिणतम्-“एष पंडित जिनेश्वर उत्तर प्रत्युत्तर यद् भरिणष्यति तदस्माकम् सम्मतमेव ।"
खरतरगच्छ वृहद गुर्वावली पृष्ठ-३
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