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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ४ गया। उन्होंने सैद्धान्तिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। चैत्यवासी परम्परा के साधुओं, प्राचार्यों आदि का सिद्धान्त शास्त्रों से विपरीत आचार-विचार-व्यवहार देख कर उन्होंने सच्चे श्रमणधर्म को अंगीकार करने का दृढ़ संकल्प किया। गुरु द्वारा अनेक भांति समझाये जाने और प्रलोभन दिये जाने के उपरान्त भी वर्द्धमान मुनि चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर सच्चे क्रियानिष्ठ श्रमरणश्रेष्ठ गुरु की खोज में निकल पड़े । सुदूरस्थ प्रदेशों के विभिन्न नगरों में विचरण करने के पश्चात् वर्द्धमान दिल्ली के समीपवर्ती क्षेत्र में पहुँचे। वहां उनकी उद्योतन सूरि से भेंट हुई । "वृद्धाचार्य प्रबंधावली" के वर्द्धमान सूरिप्रबंध के अनुसार वे उद्योतनसूरि अरण्यचारीगच्छ के नायक थे । सच्चे गुरु की खोज में घूमते हुए वर्द्धमान मुनि को उद्योतनसूरि के दर्शनों से पूर्ण संतोष हुआ कि सच्चे श्रमरण धर्म का पालन करने वाले जिन अागम निष्णात गुरु की खोज में वे विभिन्न क्षेत्रों में घूमे, उनका वह परिश्रम सफल हुप्रा ।
मुनि वर्द्धमान ने उद्योतनसूरि के पास शास्त्रोक्त सच्चे श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की और उनकी सेवा में रहकर सभी शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने मेधावी शिष्य वर्द्धमानसूरि को सभी भांति सुयोग्य समझ कर उद्योतनसूरि ने उन्हें आचार्यपद प्रदान किया। "उपसम्पदं गृहीतवान् । तदनन्तरं श्रीवर्द्धमान सूरेरियं चिन्ताजाता-अस्य सूरिमन्त्रस्य को अधिष्ठाता। तस्य ज्ञानायोपवासत्रयमकारि ।" इन वाक्यों से यही अनुमान लगाया जाता है कि उद्योतनसूरि अपने शिष्य वर्द्धमान को प्राचार्यपद एवं उसके साथ साथ सूरिमन्त्र भी प्रदान किया । सूरिमंत्र प्रदान करने के पश्चात् उद्योतनसूरि में अपने शिष्य वर्द्धमानसूरि को अन्यत्र विहार करने की आज्ञा प्रदान की अथवा स्वर्गारोहण किया, इस संबंध में प्रमाणाभाव के कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता किन्तु इससे यह तो सिद्ध होता है कि सूरिमंत्र देने के पश्चात् गुरु अथवा शिष्य ने एक दूसरे से भिन्न दिशा में विहार कर दिया । अन्यथा "सूरि मंत्र का अधिष्ठाता कौन है", अपने अंतर्मन में इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होते ही वर्द्धमान सरि तत्काल अपने गुरु से पूछ कर अपने अन्तर्मन में उठे प्रश्न का तत्काल ही समाधान कर लेते और उन्हें इसके लिये तीन उपवास की तपस्यापूर्वक धरणेन्द्र की प्राधना करने की आवश्यकता नहीं रहती।
उद्योतनसूरि के साथ-साथ वर्द्धमानसूरि का जो विवरण ऊपर दिया गया है, इससे यह सिद्ध होता है कि चैत्यवासी परम्परा में दीक्षित वर्द्धमानसूरि को प्रागम समझने योग्य अध्ययन करने में १०-१५ वर्ष का समय अवश्य लगा होगा। आगमों में प्रतिपादित धर्म एवं श्रमणाचार के स्वरूप की तुलना में चैत्यवासी परम्परा के अनागमिक आचार-विचार के साथ साथ उनकी शास्त्र विरुद्ध धार्मिक मान्यताओं के संबंध में क्षीर नीर विवेकपूर्ण दृष्टि से विचार कर चैत्यवासी परम्परा का त्याग करने की परिपक्व बुद्धि भी वर्द्धमान मुनि में कम से कम तीस पैंतीस वर्ष जैसी वय की अवस्था में ही आई होगी । इस प्रकार ३०-३५ वर्ष की
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