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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- भाग ४ विहंगमावलोकन से भी प्रकाश में आती है कि सुदीर्घ अतीत में तत्वार्थ सूत्र जैसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रचनाकार उमास्वाति और दिगम्बर परम्परा में प्रागम तुल्य विपुल ग्रन्थों के निर्माता कुन्द कुन्द की क्रमबद्ध गुरु परम्परा विस्मृति के गर्त में विलीन हो जाने के कारण आज कहीं उपलब्ध नहीं होती।
एक अनुमान यह भी किया जा सकता है कि मुनि वर्द्धमान ने चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर आगमानुसार विशुद्ध निरतिचार संयम का पालन करनेवाले, जिन आचार्य के पास उपसंपदा और आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया, उनका नाम कहीं लिपिबद्ध न होने अथवा अन्य किन्हीं कारणों से उतरवर्तीकाल में लेखकों की स्मृति से तिरोहित हो गया हो। इस अनुमान की पुष्टि करने वाले दो तथ्य वस्तुतः मननीय हैं। प्रथम तो यह कि प्रभावक चरित्रकार प्रभाचन्द्र सूरि ने प्रभावक चरित्र में श्री जिनेश्वर और बुद्धिसागर की दीक्षा के प्रसंग में उनके गुरु वर्द्धमानसूरि का परिचय देते हुए लिखा है :
इत: सपादलक्षेऽस्ति नाम्ना कर्चपुरं पुरम् ॥३॥ तत्रासीत् प्रशमश्रीभिर्वर्द्धमान गुणोदधिः । श्री वर्द्धमान इत्याख्य सूरिः संसारपारभूः ।।३३।। चतुर्भिरधिकाशीतिश्चैत्यानां येन तत्यजे। । सिद्धान्ताभ्यासतः सत्य-तत्त्वं विज्ञाय संसृतेः ।।३४॥
अर्थात् पूर्वकालीन सांभर राज्य के अन्तर्गत कूर्चपुर (कुचेरा) नगर में निरन्तर बढ़ते हुए गुणों के सागर वर्द्धमान नामक प्राचार्य रहते थे, जो कि वस्तुतः सच्चे मुमुक्षु थे । आगमों के अभ्यास से उन वर्द्धमानसूरि ने संसार के वास्तविक स्वरूप-तत्त्वज्ञान को समझ कर चौरासी चैत्यों के माठपत्य एवं चैत्यवास का त्याग कर दिया।
विक्रम की १४वीं शताब्दी के लब्ध प्रतिष्ठ इतिहासकार प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी वि. सं. १३३४ की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति "प्रभावक चरित्र" की ऊपर उद्ध त पंक्तियों में न तो उद्योतनसूरि का नामोल्लेख तक किया है और न ही वर्द्धमानसूरि का परिचय देते हुए इस बात का कोई संकेत तक दिया है कि चैत्यवासी परम्परा का परित्याग करने के अनन्तर वर्द्धमानसूरि ने विशुद्ध श्रमणाचार का प्रतिपालन करने वाले किन विद्वान् प्राचार्य का शिष्यत्व अंगीकार कर अथाह आगमोदधि का अध्ययन एवं अवगाहन किया।
प्रभाचन्द्रसूरि जैसे तटस्थ राजगच्छ के आचार्य द्वारा वर्द्धमानसूरि एवं अभयदेवसूरि के परिचय में उद्योतनसूरि के नाम तक का उल्लेख न किया जाना
१. प्रभावक चरित्र अभयदेवसूरि चरितम्, पृष्ठ १६२
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