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________________ १०८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ वहां आधी रात के समय उन्होंने गगनमण्डल में देखा कि रोहिणी शकट में वहस्पति प्रवेश कर रहा है । यह देख कर उद्योतनसूरि ने कहा-इस समय ऐसी लाभदायक शुभ वेला चल रही है कि मैं जिस किसी के शिर पर हाथ कर (रख) + तो वही सर्वत्र प्रसिद्ध हो जाय ।" यह सुन कर उन सभी ८३ शिष्य श्रमणों ने उद्योतनसूरि से प्रार्थना की"स्वामिन् ! आप हमारे विद्या गुरु हैं और हम आपके शिष्य हैं, अतः आप कृपा कर हमारे शिर पर अपना कर कमलकर दीजिये।" उद्योतनसूरि ने कहा-"वासचूर्ण लाओ।" इस पर उन ८३ श्रमणों ने काष्ट एवं कण्डे एकत्र कर उनका चूर्ण बनाया और उद्योतन सूरि को समर्पित किया। उद्योतनसूरि ने उस वासचूर्ण को अभिमंत्रित कर क्रमशः ८३ साधुओं के मस्तकों पर वासक्षेप किया। प्रातःकाल उद्योतनसूरि ने अपनी आयु स्वल्प जानकर अनशन अंगीकार किया और वहीं समाधिपूर्वक स्वर्गस्थ हुए। अन्य (अपनी परम्परा से भिन्न परम्परा वाले) स्थविरों के उन ८३ सभी शिष्यों ने (अपने-अपने श्रमण समूह में पहुँच कर) आचार्यपद प्राप्त किये। उन्होंने पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में विहार किया और उनके ८३ गच्छ प्रकट हुए। उद्योतनसूरि ने अपने स्वयं के शिष्य वर्द्धमान मुनि को प्राचार्यपद पहले ही प्रदान कर दिया था, उनका गच्छ चौरासी गच्छ की प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। इस प्रकार चौरासी गच्छों की उत्पत्ति हुई।" खरतरगच्छ गुर्वावली के इस उल्लेख से यही निष्कर्ष निकलता है कि चैत्यवासी परम्परा के उस वर्चस्वकाल में उद्योतनसूरि विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले उद्भट विद्वान् प्राचार्य थे। उनके पास जिन ८४ श्रमणों ने शास्त्रों का अध्ययन किया, उनमें से ८३ तो अन्यान्य परकीय स्थविरों के शिष्य थे और केवल एक वर्द्धमानसूरि ही उनके द्वारा दीक्षित उनके शिष्य थे। यदि वर्द्धमानसूरि से पूर्व दीक्षित शिष्यों का परिवार उद्योतनसूरि का होता तो वे उन पूर्वदीक्षित शिष्यों में से किसी को सूरीश्वर अथवा प्राचार्य का पद अवश्यमेव प्रदान करते । संभवतः उनके पास वर्द्धमानसूरि से पूर्व दीक्षित शिष्य परिवार नहीं था, ' इसी कारण चैत्यवासी परम्परा से निकले हुए वर्द्धमान मुनि को उन्होंने प्राचार्यपद प्रदान किया। इन बातों पर विचार करने पर अनुभव किया जाता है कि वर्द्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि कहीं श्रमण भगवान् की उस विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा के शिष्य परिवार विहीन आचार्य तो नहीं थे, जिसके सम्बन्ध में अभयदेवसूरि से लेकर आज तक के सभी विद्वानों ने चैत्यवासी परम्परा के एकाधिपत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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