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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] unfo [ १०७ इस प्रकार दोनों पट्टावलियों में आचार्यों के पूर्वापर क्रम में परस्पर विरोधी बड़ा ही हेरफेर होने के कारण गहन शोध के बिना यह कहना एक प्रकार से असंभव सा हो गया है कि इन दोनों पट्टावलियों में से कौनसी प्रामाणिक है और कौनसी प्रामाणिक । · २. खरतरगच्छ की इस गुर्वावली के ऊपर उद्धत पाठांश में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि उद्योतनसूरि को महान् विद्वान्, विशुद्ध श्रमणाचार का पालक ( शुद्ध क्रियापात्र) समझ कर श्रमण समूहों के नायक ८३ स्थविरों ने अपना-अपना एक मेधावी शिष्य शास्त्रों के अध्ययन के लिये उद्योतनसूरि की सेवा में भेजा । उद्योतनसूरि ने उन ८३ स्थविरों के ८३ शिष्यों को शास्त्र का अध्ययन और विशुद्ध श्रमणाचार का बोध करवाया । उस अवसर पर अबोहर प्रदेश की स्थविर मण्डली के चैत्यवासी प्राचार्य जिनचन्द्राचार्य के वर्द्धमान नामक शिष्य को सिद्धान्तों का अवगाहन करते समय ८४ आशातना अधिकार को पढ़ कर बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने अपने चैत्यवासी गुरु जिनचन्द्राचार्य से निवेदन किया- स्वामिन्! चैत्य में हमारे निवास के कारण हम इन आशातनाओं से बच नहीं सकते, इसलिये मुझे तो चैत्य में निवास किंचित् मात्र भी रुचिकर प्रतीत नहीं होता ।" इस पर चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने अपने शिष्य वर्द्धमान को आक्रोशपूर्ण स्वर में विप्रताड़ित किया - भला-बुरा कहा । गुरु द्वारा भला-बुरा कहे जाने पर भी चैत्यवासी गुरु के शिष्य वर्द्धमान के मन में विशुद्ध श्रमणाचार के प्रति जो श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं आई । उसने चैत्यवास का परित्याग कर दिया और विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले उद्योतनसूरि की ख्याति सुन वह उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उनसे विशुद्ध श्रमरण धर्म की उपसम्पदा अथवा दीक्षा ग्रहण कर उनका ( उद्योतनसूरि का ) शिष्य बन गया । उद्योतनसूरि ने नवदीक्षित शिष्य वर्द्धमानसूरि को क्रमशः सभी सिद्धान्तोंआगमों का अध्ययन कराया । अपने मेधावी शिष्य वर्द्धमानसूरि मुनि को आगमनिष्णात एवं सुयोग्य समझ कर उद्योतनसूरि ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया ।! "मेरे इस मेधावी एवं प्रतिभाशाली शिष्य वर्द्धमान मुनि से मेरे गच्छ की अभिवृद्धि आदि नेक काम होंगे " - यह कह कर उद्योतनसूरि ने उन्हें उत्तराखण्ड में विचरण करने की आज्ञा प्रदान की । गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर वर्द्धमानसूरि विहारक्रम से उत्तराखण्ड में पहुँचे और वहाँ विभिन्न ग्राम नगर आदि में धर्मोपदेश देने लगे । अपने शिष्य वर्द्धमानसूरि को उत्तराखण्ड की ओर विहार करने की आज्ञा प्रदान करने के अनन्तर ८३ श्रमरण समूहों के स्थविरों द्वारा आगमों के अध्ययन हेतु अपने पास भेजे गये ८३ शिक्षार्थी श्रमण शिष्यों से परिवृत श्री उद्योतनसूरि ने संघ के साथ मालव प्रदेश से शत्रुन्जय पर्वतराज पर ऋषभदेव को वंदन किया । शत्रुन्जय से लौटते समय मार्ग में उन्होंने सिद्धवट ( बड़वृक्ष ) के नीचे रात्रि विश्राम किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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