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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ९७ - इस परम्परा के प्रथम संस्थापक प्राचार्य वर्द्धमानसूरि से लेकर सातवें आचार्य श्री जिनपतिसूरि तक अर्थात् सात पीढ़ी तक विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अन्त पर्यन्त चैत्यवासी परम्परा के साथ इस परम्परा का संघर्ष चलता रहा । वर्द्धमानसूरि प्रारम्भ में चैत्यवासी परम्परा में दीक्षित हए थे। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि के उल्लेखानुसार इनके चैत्यवासी गुरु का नाम आचार्य जिनचन्द्र था, जो कि चौरासी स्थावलकों-चैत्यों के अधिनायक थे । आगमों की वाचना ग्रहण करते समय ८४ आशातनाओं का पाठ आने पर उस पर मनन करते हुए चैत्यवासी मुनि के मन में ऊहापोह उत्पन्न हया । आगमों में प्रतिपादित श्रमणाचार से चैत्यवासी साधुओं का नितान्त विपरीत आचार-व्यवहार देखकर उन्होंने अपने गुरु आचार्य जिनचन्द्र से निवेदन किया :-"गुरुदेव ! यदि इन आशातनाओं से बचकर विशुद्ध श्रमणधर्म का पालन किया जाय, तभी आत्मा का कल्याण हो सकता है।" . अपने शिष्य की बात सुनकर चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्र स्तब्ध रह गये। उनके मन में शंका उत्पन्न हुई कि यह मेधावी साधु चैत्यवासी परम्परा के विरुद्ध कहीं विद्रोह न कर बैठे। प्राचार्य जिनचन्द्र ने अपने शिष्य को चैत्यवासी परम्परा में ही बनाये रखने के उपायों पर विचार कर उसे प्रलोभन देने का निश्चय किया। उन्होंने शीघ्र ही मुनि वर्द्धमान को आचार्यपद प्रदान कर दिया। प्राचार्य जिनचन्द्र को आशा थी कि इस प्रलोभन के अनन्तर उनके शिष्य के मन-मस्तिष्क में उठी विचारक्रान्ति ठण्डी पड़ जायगी। किन्तु चैत्यवासी प्राचार्य की वह आशा नितान्त निराशा में परिणत हो गई। आचार्य पद का प्रलोभन उन्हें सत्पथ पर अग्रसर होने से नहीं रोक सका । सत्य की उस झलक मात्र से ही वर्द्धमान मुनि का मन चैत्यवास से उचट गया। सत्य का साक्षात्कार करने की उनके अन्तर्मन में अमिट उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपने गुरु से कहा कि आत्म-कल्याण के उद्देश्य से वे घरबार छोड़कर निकले हैं। अतः अब वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रभु महावीर द्वारा प्रदर्शित साधना के आगमानुसारी प्रशस्त पथ पर अग्रसर होंगे। से अपने चैत्यवासी गुरु जिनचन्द्राचार्य को इस प्रकार सविनय निवेदन कर मुनि वर्द्धमान अपने कतिपय चैत्यवासी साथी मुनियों के साथ चैत्यवासी परम्परा का त्याग कर आगमानुसारी विशुद्ध श्रमण धर्म की दीक्षा अंगीकार करने के लिये निरतिचार विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले आगमों के मर्मज्ञ, ज्ञान और क्रिया रूपी गंगा-यमुना के संगमभूत श्रमणोत्तम गुरु की खोज में इधर-उधर विचरने लगे। अनेक सुदूरवर्ती क्षेत्रों में विचरण करने के अनन्तर उन्हें उद्योतनसूरि नामक अरण्यचारी (वनवासी) परम्परा के आचार्य के सम्बन्ध में सूचना मिली कि वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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