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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ४
___ इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ भाव से विचार करने पर प्रत्येक विचारक इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि चैत्यवासी परम्परा के व्यापक वर्चस्व एवं प्रचारप्रसार के परिणामस्वरूप जिनशासन का वीर निर्वाण सम्वत् १००१ से २००० तक की अवधि के बीच दुखद विघटन हुआ, जैनधर्म की विशुद्ध मूल परम्परा नितान्त गौण, स्वल्पजन-सम्मत एवं अतीव क्षीण अवस्था में अवशिष्ट रह गई थी। यदि संक्षेप में यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सूर्य के समान प्रकाशमान जिनशासन का विशुद्ध मूल स्वरूप विकृतियों की काली घटाओं से आच्छन्न अथवा तमसावृत्त हो गया था।
द्रव्य परम्पराओं की जननी चैत्यवासी परम्परा का वर्चस्व वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से वीर निर्वाण की सोलहवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध तक जिस द्रुत गति से उत्तरोतर बढ़ता ही गया, वह यदि उसी गति से चार पांच शताब्दी तक और बढ़ता जाता तो आज आर्यधरा पर सर्वज्ञ प्रणीत आगमानुसारी जैनधर्म के मूल विशुद्ध स्वरूप के और जिस संख्या में पंच महाव्रतधारी विहरूक त्यागी श्रमण श्रमणियों के दर्शन सुलभ हो रहे हैं, सम्भवतः वे इस रूप में दर्शन नितान्त दुर्लभ हो जाते । किन्तु इसे मुमुक्षुत्रों का सद्भाग्य ही कहा जावेगा कि उस संक्रान्ति काल में भी बीज रूप में विद्यमान रही विशुद्ध श्रमण परम्परा के आगम मर्मज्ञ विद्वान् वनवासी प्राचार्य उद्योतनसूरि के पास विशुद्ध श्रमण धर्म में दीक्षित हो आगमों के अध्ययन के अनन्तर एक निर्भीक एवं मेधावी श्रमणवर ने अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात कर चैत्यवासियों के इंगित पर लगभग पांच सौ साढ़े पांच सौ वर्षों से अन्धकार की ओर अग्रसर होते आ रहे जैनसंघ को अन्धकार से प्रकाश की ओर मोड़ दिया-उन्मुख किया।
धर्मक्रान्ति का शंखनाद
जिस समय चैत्यवासी परम्परा चरमोत्कर्ष पर थी, उस समय विक्रम की ग्याहरवीं शताब्दी के मध्य भाग (विक्रम सम्वत् लगभग ११६० से ११८० के बीच की अवधि) में, जैन संघ में एक ऐसी अभिनव क्रान्तिकारिणी परम्परा का अभ्युदय हुआ, जिसने भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा का ह्रास करने वाली, शिथिलाचार, बाह्याडम्बर, भौतिक विधि विधान, अनुष्ठान, चैत्यों में नियतनिवास, मठाधिपत्य, परिग्रह संचय, विहार-परित्याग आदि अशास्त्रीय एवं श्रमणाचार से नितान्त प्रतिकूल कार्यकलापों के माध्यम से जैनधर्म के सर्वज्ञ प्रणीत विशुद्ध स्वरूप तथा मूल, विशुद्ध श्रमणाचार में आमूलचूल परिवर्तन कर अनेक प्रकार की विकृतियों को जन्म देने वाली द्रव्य परम्परा, चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को समाप्त करने एवं जैनधर्म तथा श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित करने का बीड़ा उठाया। इस परम्परा के संस्थापक थे वर्द्धमान सूरि ।
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