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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड-२ 1 [ ६५ के अस्तित्व तक पर संकट के काले बादल मण्डराने लगे । धर्म के मूल विशुद्ध स्वरूप और सर्वज्ञ प्रणीत श्रागमानुसारी श्रमणाचार की रक्षा के लिए मूल परम्परा के गच्छों ने मिलकर "सुविहित परम्परा" को जन्म दिया । सुविहित परम्परा के प्राचार्यों, श्रमणों, श्रमणियों तथा उनके उपासक उपासिका वर्ग के सामूहिक प्रयास, चैत्यवासी परम्परा के एकाधिपत्यात्मक वर्चस्व के संक्रान्तिकाल में जैनधर्म के मूल स्वरूप और प्रागमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार की, मूल श्रमण परम्परा की रक्षा करने में कतिपय अंशों में सफल भी हुए, किन्तु राज्याश्रयप्राप्त चैत्यवासी परम्परा अपने सुदृढ़ संगठन, विपुल भौतिक साधनों, जनमन-रंजनकारी चित्ताकर्षक आडम्बर पूर्ण धार्मिक प्रायोजनों, अनुष्ठानों, उत्सवों, महोत्सवों, संघयात्राओं और प्रभावनाओं के बल पर उत्तरोत्तर अधिकाधिक बहुजन सम्मत एवं लोकप्रिय होती गई । इस प्रकार सुविहित परम्परा के प्रचारप्रसार एवं शक्ति संचय के पथ में चैत्यवासी परम्परा एक प्रबल बाधक ( रोडा ) ही बनी । समय-समय पर सुविहित परम्परा के कर्णधार प्राचार्यों द्वारा जैन समाज के समक्ष प्रागमानुसारी धर्म एवं श्रमणाचार का विशुद्ध स्वरूप रखा गया और मूल परम्परा को पुरातन प्रतिष्ठित पद पर पुनः प्रतिष्ठापित करने के प्रयास भी किये गये किन्तु उन्हें चैत्यवासी परम्परा के दुर्भेद्य सुदृढ़ गढ़ तुल्य प्रदेशों में प्रवेश तक प्राप्त नहीं हो सका । हरिभद्र सूरि, अभयदेव सूरि, जिनवल्लभ सूरि आदि पूर्वाचार्यों के प्रतिरिक्त जैन इतिहास में अभिरुचि रखने वाले प्रायः सभी मनीषियों ने भी वीर निर्वारण सं० १००० के पश्चात् चैत्यवासी परम्परा के लोकप्रिय वर्चस्व एवं व्यापक प्रचारप्रसार के परिणामस्वरूप जैन धर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप में उत्पन्न हुई विकृतियों, मूल परम्परा के प्रत्यन्तिक ह्रास, विघटन आदि पर गहरा दुःख प्रकट किया है । देखें संघपट्टक की प्रस्तावना में क्या लिखा गया है। —— "सदरहु देवगिरिण, भगवान थी १००० वर्षे स्वर्गवासी थया अने ते सा खरू जिन शासन गुम थई तेना स्थाने चैत्यवासियोए पोता तो दोर अने जोर चलाववा मांड्यो ।” .......... चैत्यवास रूप कुमार्ग जैन धर्म ना नामे चौमेर फैलाव मांड्यो ।............ ....एम वीर प्रभु ना निर्वारण थी १००० वर्ष बीत्यां बाद जोर पर चढेलो चैत्यवास लगभग १००० वर्ष लगी' चाली ने पाछो सदंतर बन्द पड्यो ।” १. जैन वांग्मय के आलोडन से यह सिद्ध होता है कि वीर नि० सं० २१३० के समय तक भी चैत्यवासियों का कही-कहीं अस्तित्व था । यथा : "सं० ( वि० सं०) १६६० में शाह श्री रत्नपाल ( कडवा गच्छ के पट्टधर) ने राजनगर में चातुर्मास किया । श्री संघ सिरोही आया, वहां चैत्यवासी के साथ चर्चा शाह श्री रत्नपाल तथा संघ के आदेश से शाह जिनदास ने की ।" - कडवा मत पट्टावली, पट्टावली परागसंग्रह (जालोर) पृष्ठ ५०६, ५०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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