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चैत्यवासी परम्परा के उन्मलन का अभियान
प्रस्तुत ग्रन्थमाला के इससे पूर्व के तृतीय भाग में प्रबल ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर बड़े विस्तार के साथ प्रमाण पुरस्सर यह बताया जा चुका है कि वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के पदार्पण के साथ ही श्रमण भगवान् महावीर के धर्म संघ में एक अभूतपूर्व परिवर्तनकारी ऐसा प्रबल मोड़ आया, जिसने लगभग एक हजार वर्ष से एकता के सूत्र में प्राबद्ध चले आ रहे न केवल जैन धर्मसंघ को ही झकझोर कर रख दिया, अपितु जैनधर्म की प्राणभूता परम्परागत आगमिक मान्यताओं में भी आमूलचूल परिवर्तन कर जैनधर्म एवं श्रमण धर्म के मूल स्वरूप को ही बदल दिया। उस परिवर्तनकारी मोड़ के परिणामस्वरूप जैन धर्मसंघ में अनेक द्रव्य परम्पराएं प्रादुर्भूत हुईं, पनपी, पुष्पित और पल्लवित हुई । बड़ी ही द्रुतगति से उनका वर्चस्व जैन संघ पर और जन-जन के मानस पर ऐसा छाया कि जिस प्रकार सघन घन-घटाओं के घटाटोप में सूर्य छिप जाता है, प्रायः उसी प्रकार परम्परागत अध्यात्मपरक मूल परम्परा गौण होते-होते नितान्त नगण्य-लुप्तप्राय सी हो गई।
वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से प्राबल्य में आई उन द्रव्य परम्पराओं में सर्वाधिक सक्रिय और सशक्त परम्परा, चैत्यवासी परम्परा सामान्यतः लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना एकाधिपत्य और साधारणतः कर्णाटक, आन्ध्र आदि दक्षिणी प्रान्तों के कतिपय क्षेत्रों पर लिंगायतों के अभ्युदय से पर्याप्त पूर्व काल में अपना प्रभाव जमा चुकी थी।
चैत्यवासी परम्परा ने अपने नवीनतम आडम्बरपूर्ण अत्याकर्षक धार्मिक उत्सवों, आयोजनों एवं चमत्कार प्रदर्शन आदि के माध्यम से जन-मानस को अपनी
ओर आकर्षित करने में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक तो उपरिवरिणत विशाल भू-भाग के जैन धर्मावलम्बियों पर चैत्यवासी परम्परा छा गई। गुजरात, राजस्थान, मालवा, मत्स्य और उत्तर प्रदेश के जैन संघों पर चैत्यवासी परम्परा का एक प्रकार से एकाधिपत्य सा छा गया । इसके बढ़ते हुए वर्चस्व के परिणामस्वरूप न केवल श्रावक-श्राविका वर्ग ही अपितु मूल परम्परा के श्रमण-श्रमणी वर्ग भी सामूहिक रूप से चैत्यवासी परम्परा के अनुयायी बनने लगे।
मूल परम्परा के प्रचारक-प्रसारक एवं प्राणभूत श्रमण-श्रमणी वर्ग की उत्तरोत्तर विघटित होती हुई स्थिति और श्रमणोपासक-श्रमणोपासिका वर्ग की स्वल्प से स्वल्पतर एवं स्वल्पतम होती जा रही संख्या के फलस्वरूप मूल परम्परा
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