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________________ ६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ४ बड़े ही क्रियानिष्ठ एवं आगम-निष्णात आचार्य हैं और दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में विचरण कर रहे हैं। मुनि वर्द्धमान अपने साथियों सहित अप्रतिहत विहार कर दिल्ली क्षेत्र के आसपास विचरण करते हुए उद्योतनसूरि की सेवा में पहुंचे। वर्द्धमान मुनि को उद्योतनसूरि के दर्शन और उनके साथ बातचीत से तत्काल विश्वास हो गया कि जिस प्रकार के क्रियापात्र और समर्थ गुरु की खोज में थे, वे उसी प्रकार के गुरु की सेवा में पहुँच गये हैं। वर्द्धमान मुनि ने अपने विषय में अथ से इति तक पूरा विवरण उद्योतनसूरि के समक्ष निवेदित करने के अनन्तर उनसे प्रार्थना की : "आचार्यदेव ! मैं विश्वबन्धु भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित विशुद्ध धर्ममार्ग पर आरूढ़ हो कर आत्म-कल्याण का आकांक्षी हूं । दया सिन्धो ! पंच महाव्रतों की श्रमण दीक्षा देकर आप मुझे अपने चरणों की शरण में ले आगमों का ज्ञान प्रदान कीजिये।". उद्योतनसूरि ने भवभीरु एवं सुयोग्य पात्र समझ चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर आये हुए मुमुक्षु वर्द्धमान और उनके साथियों को जीवन पर्यन्त सभी प्रकार के सावद्य योगों का त्रिविध योग एवं त्रिविध करण से त्याग करवाते हुए श्रमण-धर्म की दीक्षा प्रदान की। __उपसम्पदा ग्रहण करने के अनन्तर वर्द्धमान मुनि ने बड़ी निष्ठा और पूर्ण विनयपूर्वक अपने गुरु उद्योतन सूरि से एकादशांगी प्रमुख आगमों का अध्ययन किया । आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्रदान करने के पश्चात् उद्योतनसूरि ने ही सम्भवतः कालान्तर में वर्द्धमानसूरि को सूरि मन्त्र प्रदान किया। इस प्रकार विशुद्ध मूल श्रमणाचार के पालक सूरि प्रदीप से दूसरा श्रमण दीप प्रदीप्त हुआ। सूरि मन्त्र की साधना के अनन्तर वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासियों द्वारा विकृत . किये गये धर्म के मूल स्वरूप और विशुद्ध श्रमणाचार को प्रकाश में लाने, जन-जन के समक्ष प्रकट करने का भगीरथ प्रयास प्रारम्भ किया । ___ खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली और वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि में वर्द्धमानसूरि एवं इनके उत्तरवर्ती पट्टधरों के सम्बन्ध में कतिपय परस्पर विरोधी, अतिशयोक्तिपूर्ण तथा सुविहित श्रमणाचार से मेल न खाने वाली बातों का उल्लेख किया गया है।' उन उल्लेखों के सम्बन्ध में स्वर्गीय पंन्यास श्री कल्याणविजयजी महाराज १. वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि में ............."अरण्यचारी गच्छनायगा सिरि उज्जोयण सूरि पट्टधारिणो" में इस प्रकार का उल्लेख है किन्तु खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में अरण्यचारी का उल्लेख न कर केवल "तत्रवोद्योतनाचार्य आसीत्" यही उल्लेख है । ----खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ८६ और १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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