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________________ सामान्य श्रुतधार काल खण्ड-२ ] [ ८७ और कालान्तर में लिपिकों के दोष से 'पनरस सएहिं होइ दरिसाणं' यह रूप धारण कर गया हो। इस प्रकार के प्राचीन ऐतिहासिक घटनाचक्र के सम्बन्ध में पन्द्रह बीस वर्ष का अन्तर उस दशा में और भी सहज सम्भव हो जाता है, जबकि वह परम्परा क्षीण होते-होते शताब्दियों पूर्व ही विलुप्तप्रायः हो चुकी हो। जिस रूप में आज यह गाथा उपलब्ध है, उसी रूप में यदि इसे स्वीकार कर लिया जाय तो भी इस गाथा से यह प्रमाणित होता है कि युग प्रधानाचार्य परम्परा प्राचीनकाल में सर्वोच्च सत्तासम्पन्न, सर्वाधिक वर्चस्व शालिनी सर्वजन सम्मत प्रामाणिक परम्परा थी। इसके साथ ही साथ इस गाथा से युगप्रधानाचार्य पट्टावली और अवचूरि एवं प्रथमोदय द्वितीयोदय युगप्रधान यन्त्रों सहित दुष्षमा श्रमण संघ स्तोत्र की भी प्रामाणिकता सिद्ध होती है। युग प्रधानाचार्य फल्गुमित्र के प्राचार्यकाल की विशिष्ट घटनाएँ (१) शक सम्वत् ६१५ (वीर निर्वाण सम्वत् १५२०) में पाहवमल्ल तैलप चालुक्य चक्रवर्ती के राज्यकाल में उसके सेनापति तैलप के आश्रित कवि रन्न ने “अजित तीर्थंकर पुराण तिलकम्" की रचना की। (२) वीर निर्वाण सम्वत १५२० के आसपास ही महाराजा आहवमल्ल के सेनापति तैलप की माता अतिमब्बे ने शान्तिपुराण की एक हजार प्रतियां तैयार करवा कर देश के विभिन्न भागों में दान की। इसी आदर्श श्राविका अतिमब्बे ने देश के विभिन्न भागों में डेढ़ हजार वसदियों का निर्माण करवाया। अतिमब्बे द्वारा की गई उल्लेखनीय सेवाओं के परिणामस्वरूप चतुर्विध संघ ने उसे घटान्तकी देवी का विरुद प्रदान किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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