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वीर निर्वारण से देवद्धि-काल तक ]
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वाले ब्रह्म अर्थात् मैथुन का जीवन पर्यन्त कभी सेवन नहीं करते । वास्तव में ब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और सभी दोष समूहों की खान है, इसीलिये निर्ग्रन्थ साधु मैथुन का सर्वथा त्याग करते हैं ।
(साधु के प्रचार का पांचवां स्थान है अपरिग्रह । भगवान् महावीर की शाश्वत सुख प्रदायिनी वारणी में अनुरक्त रहने वाले श्रमण घी, तेल, बिड़ - लवर - विशेष, गुड़ आदि किसी भी प्रकार के पदार्थ के संग्रह करने और रात्रि में बासी रखने की इच्छा तक नहीं करते । संग्रह लोभ के प्रभाववश ही किया जाता है, संग्रह लोभ का ही परिचायक है अतः तीर्थकरों ने कहा है कि यदि कदाचित्, किसी भी समय कोई साधु, संग्रह करना तो दूर किन्तु संग्रह करने की इच्छा भी करता है तो वह साधु वस्तुतः साधु नहीं गृहस्थ ही है । निर्ग्रन्थ श्रमण वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहर आदि शास्त्रोक्त धर्मोपकररण भी केवल संयम के निर्वाह एवं लज्जा की रक्षा के लिए ही अनासक्त भाव से धारण करते और उनका उपभोग करते हैं । प्राणिमात्र के रक्षक प्रभु महावीर ने अनासक्त भाव से वस्त्र, पात्रादि के रखने hi परिग्रह नहीं कहा है । उन्होंने तो मूर्च्छाभाव अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा है । महपि सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू से ऐसा ही कहा है । तत्वज्ञ मुनि वस्तुतः संयम साधना में सहायक वस्त्र, पात्रादि उपकरण एक मात्र संयम की रक्षा के लिये ही रखते हैं, न कि मूर्च्छा भाव से । क्योंकि तत्वज्ञ साधु वस्त्र, पात्रादि उपकरणों की बात तो दूर, अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते ।
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( श्रमरणों के प्रचार का छठा स्थान है- रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करना । सभी ज्ञानी पुरुषों ने कहा है कि केवल संयमनिर्वाह के लिए जीवन पर्यन्त दिन में केवल एक बार ही भोजन करना और रात्रि भोजन का सदा के लिए त्याग करना —- यह श्रमणों का प्रतिदिन का नित्य नियत बहुत बड़ा तप है ।
संसार में बहुत से त्रस और स्थावर जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे रात्रि में दिखाई नहीं देते। ऐसी स्थिति में उन सूक्ष्म जीवों की रक्षा करते हुए रात्रि में आहार की शुद्ध एषरणा करना कैसे संभव हो सकता है । क्योंकि भूमि पर रहे हुए कीड़े-मकोड़े आदि प्राणियों को, (सचित्त जल, सचित जल मिश्रित आहार, पृथ्वी पर मार्ग में गृहांगन में. पाकशाला आदि में बिखरे हुए बीज अथवा वीजादि से मिश्रित अथवा संसक्त आहार का ) दिन में तो देख कर उन प्राणियों की रक्षा की जा सकती है, ( उस सदोष अनेषणीय आहार पेयादि को ग्रहण करने के दोष से बचा जा सकता है ।) परन्तु रात्रि में उन प्राणियों की रक्षा करते हुए न तो चला ही जा सकता है और न सदोष निर्दोष आहार- पानीय का भी निश्चय किया जा सकता है। इस प्रकार इन प्राणिहिंसा और आत्मविराघनाकारक दोषों को देख कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर ने कहा कि निर्ग्रन्थ मुनि चार प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का आहार रात्रि में न करें ।
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