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________________ ४० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ जो साधु इन १८ स्थानों में से यदि किसी एक स्थान की भी विराधना करता है तो वह साधुत्व से फिसला माना जाता है । भगवान् महावीर ने केवल ज्ञान केवल दर्शन से देखा कि प्रारणी मात्र पर दया रूपी हिंसा अनन्त मुखों को देने वाली है । इसीलिये स्वयं प्रभु महावीर ने ( साधु के १५ स्थान रूप ) साध्वाचार के इन अठारह स्थानों में सर्वप्रथम स्थान हिंसा व्रत को दिया है । - 2) चौदह रज्जु परिमारण - सम्पूर्ण लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, उनमें से किसी भी प्रारणी को जान-बूझकर अथवा प्रमादवश अनजानपन में न कभी स्वयं मारे, न किसी दूसरे से उसकी घात करवाये और न उन जीवों में से किसी जीव को मारने वाले का अनुमोदन ही करे । यह अनन्त शाश्वत सुखों को देने वाला विश्वकल्याणकारी एवं सर्वोत्कृष्ट पहला ग्रहिंसा महाव्रत है । संसार केस और स्थावर सभी जीव जीना चाहते हैं । उनमें से कोई एक भी जीव मरना नहीं चाहता । इसीलिये छहों जीव कायों के प्रतिपालक निर्ग्रन्थ जैन श्रमण भवभ्रमण कराने वाली महा भयंकर जीव- हिंसा का जीवन पर्यन्त सर्वथा त्याग करते हैं । यह ग्रहमा साधु का सबसे बड़ा और सबसे पहला साध्वाचार है । जैन श्रमरणों के ग्राचार का दूसरा स्थान अर्थात् साधु का दूसरा गुण मृषावाद - विरमगा है । साधु अपने स्वयं के लिये अथवा किसी दूसरे के लिये कांध मान, माया, लोभ अथवा भयवण कभी किसी पर पीड़ाकारी मृपावाद - ग्रसत्य भाषण न करे, न दूसरों से अतृत भाषण करवाये और न असत्य भाषण करने वाले का अनुमोदन ही करे । संसार में सभी महापुरुषों ने मृपावाद को निन्दित बताया है, क्योंकि भट बोलने वाले का कभी कोई विश्वास नहीं करता । इसीलिये ग्रसत्य भाषण का पूर्णरूपेण सर्वथा त्याग करना चाहिये। यह जैन श्रमगा का दूसरा महात्रत है । साधु के प्रचार का तीसरा स्थान है अदत्तादान विरमरण । इस तीसरे स्थान को ग्रस्तेय और अचौर्य भी कहते हैं। कोई भी साधु किसी भी सचेतन ( शिष्यादि ) अथवा प्रचेतन (वस्त्र - पात्रादि), बहुमूल्य अथवा अल्प मूल्य वाली किसी भी वस्तु को यहां तक कि दांत कुरेदने के तिनके तक को भी, उस वस्तु के स्वामी की प्राज्ञा लिये बिना न स्वयं ग्रहगा करे, न किसी दूसरे से ग्रहगण करवाये और न प्रदत्त वस्तु को ग्रहण करने वाले किसी दूसरे का ही अनुमोदन करें । निर्ग्रन्थ भ्रमण के प्रचार का चौथा स्थान है - प्रब्रह्म विरमरण मैथुन त्याग अर्थात् ब्रह्मचर्यं । चारित्र भंग के कारणभूत सभी प्रकार के आयतनों स्थानों अथवा कार्यों से सदा दूर रहने वाले पापभीरु मुनि, वस्तुतः नरकादि प्रति दारुण दुःखदायी दुर्गतियों में डालने वाले, प्रमादोत्पादक और महा दुःखदायी परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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