SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर निर्वाण से देवदि-काल तक ] .. [३१ की एक हजार वर्ष की अवधि में जैन धर्म का यही स्व-पर हितावह एवं विश्वकल्याणकारी सनातन स्वरूप ही अक्षण्ण रूप से भगवान महावीर के चतुर्विध संघ में परमोपास्य एवं परमाराध्य रहा । उक्त एक हजार वर्ष की अवधि में जैन धर्म के उपरिवरिणत शाश्वत सनातन स्वरूप की ही तरह प्रभु महावीर के श्रमण-श्रमणी वर्ग का प्राचारगोचर भी जैसा शास्त्रों में वर्णित है, उसी प्रकार का विशुद्ध और अक्षुण्ण रहा । सुधर्मा स्वामी के प्राचार्यकाल से देवद्धि के प्राचार्य काल तक किस प्रकार का विशुद्ध श्रमणाचार रहा और देवद्धि क्षमाश्रमण के.स्वर्गस्थ होने के अनन्तर चैत्यवासियों ने उस श्रमणाचार में स्वेच्छानुसार आमूलचूल परिवर्तन कर किस प्रकार उसे विकृत बना दिया, दोनों में प्राकाश-पाताल की तरह किस प्रकार का घोर अन्तर रहा है, इसका सहज ही प्रत्येक जिज्ञासु को बोध हो सके इस दृष्टि से देवद्धि क्षमाश्रमण के प्राचार्यकाल तक अक्षुण्ण रहे विशुद्ध श्रमणाचार का स्वरूप यहां संक्षेप में दिग्दर्शित किया जा रहा है । जैन श्रमण का मूल प्राचार दशवकालिक सूत्र के 'महाचार' नामक छठे अध्ययन में भगवान महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा के श्रमण-श्रमणी वर्ग के साध्वाचार का अतीव सुन्दर रूप से सांगोपांग वर्णन किया गया है। श्रत-चारित्र रूप धर्म एवं मोक्ष के अभिलाषी निर्ग्रन्थ श्रमरणों के समग्र प्राचार को कर्मरूपी शत्रुनों के लिये भयंकर तथा कायरों के लिये दुर्धर बताते हए उसमें कहा गया है कि मुक्तिपथ पर निरन्तर अग्रसर होते रहने की उत्कृष्ट अभिलाषा वाले जन श्रमणों का प्राचार ऐसा उन्नत और दुष्कर है कि उस प्रकार का प्राचार जिन-शासन के अतिरिक्त अन्यत्र-अन्य मत-मतान्तरों में न तो कभी अतीत काल में रहा है, न वर्तमान में है और न भविष्य काल में कभी कहीं रहेगा ही। (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पंच महाव्रत और छठा रात्रि-भोजन-- त्याग रूप व्रत, इन छः व्रतों का पालन करना, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छः जीवनिकायों की रक्षा करना, अकल्पनीय पदार्थों को कभी ग्रहण न करना, गृहस्थ के पात्र में भोजनपानादि नहीं करना, पलंग पर न बैठना, गृहस्थ के आसन पर न बैठना, कभी स्नान न करना और शरीर की शोभा-सज्जा का त्याग करना-ये साधु आचार के अठारह स्थान हैं। ये अठारहों स्थान प्रत्येक साधु के लिये अनिवार्य रूपेण पालनीय हैं। चाहे कोई साधु बालक हो अथवा वृद्ध, स्वस्थ हो अथवा अस्वस्थ, सभी साधुओं को सभी अवस्थाओं में इन सभी अठारह स्थानों का-इन अठारह गुणों का अखण्ड - देश विराधना और सर्व विराधना से रहित एवं निर्दोष रूप से पालन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy