________________
४२ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच महाव्रत और रात्रि-भोजन त्याग रूप छठा व्रत-ये श्रमणाचार के छः स्थान हुए।
निर्ग्रन्थ श्रमण मन, वचन एवं काया रूप तीन योगों से और कृत, कारित तथा अनुमोदना रूप तीन करण से पृथ्वीकाय की हिंसा न स्वयं करे, न दूसरों से करवाये और न पृथ्वीकाय की हिंसा करने वालों की अनुमोदना ही करें ।
जो व्यक्ति पृथ्वीकाय की हिंसा करता है, वह पृथ्वीकाय की हिंसा करते समय पृथ्वीकाय के जीवों के साथ साथ पृथ्वीकाय के आश्रित, चक्षुत्रों से दिखाई देने वाले
और चक्षुओं से दिखाई नहीं देने वाले अनेक प्रकार के त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा करता है। इसी कारण साधु के लिये यह परमावश्यक है कि नरक आदि दुर्गतियों में भटकाने वाले इन दोषों को जानकर वह जीवन-पर्यन्त पृथ्वीकाय के समारम्भ का पूर्ण-रूपेण त्याग करे।
यह श्रमणाचार का सातवां स्थान (अर्थात् श्रमण का सातवां गुण) है ।
। साध अपकाय (जलकाय) के जीवों की तीन करण और तीन योग से न स्वयं हिंसा करे, न दूसरों से करवाये और न करने वालों की अनुमोदना ही करे। अपकाय की हिंसा करने वाला व्यक्ति तदाश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष एवं अचाक्षुष त्रस और स्थावर जीवों की भी हिंसा करता है । अतः इन दोषों को दुर्गतिवर्द्धक जान कर साधु जीवन-पर्यन्त अपकाय के समारम्भ का त्याग करें । यह श्रमणाचार का आठवां स्थान है।
श्रमणाचार का नौ वां (वां) स्थान है अग्निकाय के जीवों की तीन करण और तीन योग से कदापि हिंसा न करना) इस नवम स्थान में बताया गया है कि साध अपने जीवन में अग्नि प्रज्वलित करने की कदापि इच्छा तक न करे क्योंकि यह महा पापकारी कार्य है। अग्नि को प्रज्वलित करने का कार्य लोहे के सभी प्रकार के विनाशकारी शस्त्रास्त्रों की अपेक्षा अत्यधिक घातक और तीक्ष्ण है । सभी प्राणियों के लिये इसको सहन कर लेना अत्यन्त दुष्कर है। क्योंकि अग्नि दशों ही दिशाओं में रहे हुए जीवों को जला कर भस्म कर सकती है । इसमें किंचित्मात्र भी सन्देह नहीं कि अग्नि प्राणियों के लिये भीषण संहारकारिणी है । अतः साधु प्रकाश के लिये अथवा शीत निवारण आदि कार्यों के लिये अग्नि का किंचित्मात्र भी आरम्भ न करे । दुर्गतिवद्धक इन सब दोषों को जान कर साधु जीवन-पर्यन्त तीन करण और तीन योग से अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करें।
। श्रमण के प्राचार का दसवां स्थान है वायुकाय के जीवों की हिंसा का तीन करण और तीन योग से त्याग करना । तीर्थंकरों ने वायुकाय के प्रारम्भ-समारम्भ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org