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वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ]
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को भी अग्निकाय के प्रारम्भ के समान घोर पापपूर्ण जाना और माना है । अतः षट्काय के प्रतिपालक मुनियों को वायुकाय का समारम्भ कदापि नहीं करना चाहिये न तो मुनि स्वयं ताल के पंखे वा पत्त े से अथवा वृक्ष को हिला कर अपने ऊपर हवा करना चाहते हैं, न किसी दूसरे से हवा करवाना चाहते हैं और न हवा करने वाले की अनुमोदना ही करते हैं । साधु के पास जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि संयमोपकरण हैं उनसे भी वे वायु की उदीरणा नहीं करते । वे इन संयमोपकररणों को इस प्रकार यतनापूर्वक धारण करते हैं, जिससे कि वायु काय की विराधना न हो ।
इसलिये नरक आदि दुर्गतियों में भटकाने वाले इन दोषों को जानकर साधु जीवन पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
निर्ग्रन्थ श्रमण के प्रचार का ११वां स्थान है-तीन करण और तीन योग से वनस्पतिकाय की न स्वयं हिंसा करना, न दूसरे से वनस्पतिकाय की हिंसा करवाना और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करना
निर्ग्रन्थ श्रमण के प्रचार के १२ वें स्थान में बताया गया है कि साधु तीन करण और तीन योग से जीवन पर्यन्त न तो स्वयं काय की हिंसा करे, न दूसरे से करवाये और न करने वाले का अनुमोदन ही करें। इसमें यह भी बताया गया है कि स काय की हिंसा करने वाला व्यक्ति त्रस काय के प्राश्रित चाक्षुष और अचाक्षुष अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है । इसलिये नरक आदि दुर्गतियों के वर्द्ध के इन दोषों को जानकर साधु जीवन पर्यन्त सकाय के समारम्भ का त्याग करे |
श्रमणाचार के १३ वें स्थान में आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र आदि ये चार पदार्थ कल्पनीय हों तभी लेने का और यदि ये साधु के लिये अकल्पनीय हों तो उन्हें ग्रहण नहीं करने का निर्देश है । नित्य आमन्त्रित करके दिया जाने वाला पिण्ड, साधु के लिये मोल लिये हुए, साधु के निमित्त बनाये हुए, और साधु के लिए सामने लायें हुए आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र आदि पदार्थ साधु के लिए अकल्पनीय एवं अग्राह्य हैं । जो साधु इस प्रकार के अकल्पनीय आहार आदि चार पदार्थों को ग्रहण करता है, उसके सम्बन्ध में भगवान् महावीर ने कहा है कि वह साधु उन पदार्थों के निर्माण में हुई हिंसा की अनुमोदना करता है । इसीलिये संयम में सुस्थिर एवं सुदृढ़ और धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले जैन श्रमरण वस्तुतः साधु के लिए क्रय किये हुए, साधु के निमित्त बनाये हुए, साधु के लिए सम्मुख लाये हुए एवं पूर्वामन्त्रण के साथ दिये जाने वाले आहार, पानी आदि को कदापि ग्रहण नहीं करते हुए संयम का यथा विधि विशुद्ध रूप से पालन करते हैं ।
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श्रमणाचार के १४वें स्थान में निर्देश है कि साधु गृहस्थ के भाजन - कांसी
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