________________
w]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ पीतल आदि के (बने किसी भी) पात्र में कभी आहार पानी न करे।) यदि वह गृहस्थ के पात्र में भोजन-पान करता है तो वह आचार धर्म से भ्रष्ट माना जाता है क्योंकि तीर्थंकर प्रभु ने केवल ज्ञान द्वारा देखा है कि गृहस्थ के पात्र में साधु के भोजन करने पर साधु के संयम की विराधना होती है। गृहस्थ के जिस पात्र में साधु ने भोजन आदि किया हो उस पात्र को गृहस्थ सचित्त जल से धोयेगा, उससे अप्काय की हिंसा होगी, उन पात्रों के धोये हुए पानी को गृहस्थ अयतनापूर्वक इधर-उधर गिरायेगा, उससे बहुत से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होगी। (उस हिंसा के पाप का भागी साधु भी होगा) इस प्रकार गृहस्थ के पात्र में साधु द्वारा भोजन किये जाने की दशा में साधु को पश्चात् कर्म और पुरः कर्म दोष लगने की सम्भावना रहती है, अतः जैन मुनि को गृहस्थ के बरतन में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
श्रमणाचार के पन्द्रहवें स्थान में साधु के लिए निर्देश है कि तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा का पालन करने वाले श्रमण वेत्र (बेंत) आदि से बने पलंग, कुर्सी, खाट, पीढ़, रूई की गद्दी, मसनद और आरामकुर्सी पर न तो बैठे और न सोयें ही, क्योंकि यह साधुनों के लिए अनाचरणीय एवं अनाचार स्वरूप है ।। उपर्युक्त प्रकार के पलंग आदि में गहरे छिद्र होने के कारण उनमें रहे बेइन्द्रिय आदि प्राणियों का प्रतिलेखन होना कठिन हैं । इन सब दोषों को देखते हुए मुनि को इस प्रकार के पलंय आदि का सदा सर्वदा के लिए त्याग करना चाहिए ।
nिa
प
श्रमण के आचार के सोलहवें स्थान में मधुकरी हेतु भ्रमण करते हुए साधु को गहस्थ के घर पर बैठने का निषेध किया गया है । गृहस्थ के घर पर बैठने से साधु को दोष लगने की सम्भावना के साथ-साथ मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त गृहस्थ के घर पर बैठने से साधु के ब्रह्मचर्य महावत के नष्ट होने, प्राणियों के वध से संयम के दूषित होने, चारित्र पर सन्देह, गृहस्थ के प्रकोप और भीख मांगने के लिए आए हए भिखारी को भिक्षा में अन्तराय की सम्भावना रहती है । भिक्षाचरी के लिए गया हया साधु यदि गहस्थ के घर पर बैठता है तो साधु के ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती, स्त्रियों के विशेष संसर्ग के कारण ब्रह्मचर्य व्रत में शंका उत्पन्न हो सकती है। अतः कुशील को बढ़ाने वाले इस स्थान को श्रमण दूर से ही पूर्णतः परिवर्जित कर दे। हां, जराभिभूत, रोग-ग्रस्त और तपस्वी -- इन तीन प्रकार के साधुओं में से किसी भी साधु को कारणवश गृहस्थ के घर पर बैठना कल्पता है, अर्थात् शारीरिक निर्बलता आदि के कारण जराजर्जरित, रोगी अथवा तपस्वी साधु मूर्छा आदि के कारण गृहस्थ के घर पर विवशता की स्थिति में बैठ सकता है।
'जैन साधु के प्राचार में सत्रहवां स्थान - (साधु के सत्रहवें गुण के रूप में) यावज्जीवन अस्नान नामक घोर व्रत है । इस व्रत में साधु के लिए यावज्जीवन स्नान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org