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वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ]
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का पूर्ण रूपेण निषेध किया गया है। इस व्रत में बताया गया है कि कोई भी साधु चाहे वह रोगी हो अथवा निरोग – यदि स्नान करने की इच्छा करता है तो वह माध्वाचार से भ्रष्ट हो जाता है और उसका संयम मलिन हो जाता है। क्योंकि खार वाली पोली भूमि में और फटी हुई दरारों वाली भूमि में सूक्ष्म प्राणिसमूह होते हैं, अतः यदि साधु उष्ण जल से अथवा शीतल जल से स्नान करता हैं तो उन जीवों की हिंसा होना अवश्यंभावी है । इस प्राणिवध के दोष को जानकर शुद्ध संयम का पालन करने वाला साधु ठण्डे अथवा उष्ण जल से कभी स्नान नहीं करे । जीवन पर्यन्त वह ग्रस्नान नामक घोर व्रत का पालन करे । संयमी श्रमण को स्नान, चन्दनादि का विलेपन, लोध, पद्मपराग-कुंकुम केसर ग्रादि सुगन्धित द्रव्यों का अपने शरीर पर मर्दन, विलेपन आदि कदापि नहीं करना चाहिए ।
श्रमणाचार का अन्तिम और ग्रठारहवां स्थान, श्रमण के अठारहवें गुरण के रूप में - जीवन - पर्यन्त शरोर की शोभा विभूषा - साज-सज्जा का त्याग रूपी दुश्चर तप है। इसमें कहा गया है कि नग्न अर्थात् जिनकल्पी अथवा प्रमाणोपपेत वस्त्र रखने वाले स्थविरकल्पी, द्रव्य और भाव दोनों ही रूप से मुण्डित, बढ़े हुए नख एवं केश वाले तथा पूर्ण रूपेण उपशान्त विषय-वासना वाले साधु को शरीर की शोभा, साज-सज्जा तथा श्रृंगार से कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए । [श्रपने शरीर की साज-सज्जा, विभूषा, शृंगार आदि द्वारा शोभा बढ़ाने से साधु को ऐसे घोर चिकने कर्मों का बन्ध होता है, जिससे वह जन्म, जरा, मररण के भय रूपी जल से श्रोत-प्रोत भयावह और प्रति दुस्तर संसार सागर में गिर पड़ता है ।
शरीर की साज-सज्जा, श्रृंगार विभूषा श्रादि द्वारा शोभा बढ़ाने सम्बन्धी संकल्प - विकल्पों को ज्ञानी पुरुष चिकने कर्मबन्ध का कारण और पाप-पुरंजों की उत्पत्ति का हेतु मानते हैं, अतः छहों जीव निकाय के रक्षक - त्राता मुनियों को अपने शरीर की शोभा - विभूषा का मन में विचार तक भी नहीं करना चाहिए ।
श्रमरणाचार के इन अठारह स्थानों का यथावत् पालन करने वाले, जीव और अजीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता, सत्रह प्रकार के संयम के पालक, मोह-ममत्व रहित, आर्जवता ( सरलता) आदि गुरणों से विभूषित और बारह प्रकार के तप में रत रहने वाले निर्ग्रन्थ मुनि पूर्वकृत पाप कर्मों को विनष्ट और नवीन पापकर्मों का बन्ध नहीं करते हुए अपनी आत्मा पर लगे कषाय आदि मल को पूर्ण रूपेण नष्ट कर देते हैं । इस प्रकार के सर्वदा उपशान्त, मोह-ममता विहीन, निष्परिग्रही, अध्यात्म विद्या के उपासक एवं अनुष्ठाता, यशस्वी, शरद् पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान निर्मल मुनि समस्त कर्मों का पूर्ण रूपेण क्षय करके सिद्ध गति को प्राप्त करते हैं अथवा कुछ कर्म अवशिष्ट रहने पर वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ।
यह है शरदपूरिंगमा के पूर्ण चन्द्र सी दुग्ध-धवला, स्वच्छ, अच्छ, विमल
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