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________________ ४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ और समुज्ज्वल चांदनी के समान उस विशुद्ध श्रमणाचार का शाश्वत, सनातन स्वरूप, . जिसका अनादि काल से विश्वेश्वर, विश्वबन्धु, जगदैकत्राता तीर्थंकर प्रभु तीर्थप्रवर्तन के समय भव्यों को दिग्दर्शन कराते आये हैं और जिसका पालन प्रार्य सुधर्मा के प्राचार्यकाल से भरतक्षेत्र के इस अवसर्पिणीकाल के अन्तिम पूर्वधर आर्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के प्राचार्य काल तक अक्षुण्ण रूप से भगवान् महावीर की मूल श्रमण परम्परा के श्रमणों द्वारा पालन किया जाता रहा है। धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप में परिवर्तन का एक प्रति प्राचीन उल्लेख श्रमण भगवान महावीर के धर्मसंघ में प्रभु के प्रथम पट्टधर सुधर्मा स्वामी के प्राचार्यकाल (वीर नि०सं० १) से २७ वें पट्टधर देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहणकाल (वीर नि०सं० १०००) तक धर्म और श्रमणाचार का जो विशुद्ध मूल स्वरूप अक्षुण्ण रहा, शास्त्रीय आधार पर संक्षेप में उसका सारभूत दिग्दर्शन कराया जा चुका है। - धर्म और प्राचार के उस मूल स्वरूप में कब और किन परिस्थितियों में किस प्रकार का परिवर्तन पाया, इस प्रकार की जिज्ञासा का प्रत्येक विज्ञ विचारक के मन में उत्पन्न होना नितान्त सहज स्वाभाविक ही है । ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हैं कि वीर नि०सं० १००० से उत्तरवर्ती काल का जैन इतिहास प्रस्तुत करने से पूर्व धर्म और प्राचार के मूल स्वरूप में आये परिवर्तन के सम्बन्ध में प्रमाण पुरस्सर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया जाय । इससे प्रत्येक पाठक की जिज्ञासा भी शान्त होगी और आगे के इतिहास के अनेक उलझन भरे तथ्यों की पृष्ठभूमि को समझने में भी इतिहासप्रेमी पाठकों और विचारकों को पर्याप्त सहायता मिलेगी। धर्म के मूल स्वरूप और मूल श्रमणाचार में परिवर्तन किन परिस्थितियों में होता है, इसको भली भांति हृदयंगम कराने वाला एक अति प्राचीन काल का उल्लेख महानिशोथ में उपलब्ध होता है । परिवर्तन के अनुरूप परिस्थिति के साथसाथ महानिशीथ के उस पाख्यान में यह भी बताया गया है कि उन परिस्थितियों में धर्म के मूल और श्रमणाचार के मुल स्वरूप में किस प्रकार का परिवर्तन प्राता है। स्थानांग सूत्र के दशवें स्थान में दश आश्चर्यों का जो उल्लेख है, उनमें भी इस प्रकार के परिवर्तन की परिस्थिति और कारणों की ओर संकेत किया गया है, पर वह आगम का मूल पाठ वस्तुतः सारगर्भित सूत्र के रूप में अति संक्षिप्त है। महानिशीथ के उस उल्लेख में उस शास्त्रीय उल्लेख के अनुरूप ही अनेक तथ्यों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है, अतः महानिशीथ के उस उद्धरण का अविकल हिन्दी रूपान्तर यहां दिया जा रहा है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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