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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] [ ४७ "भगवान् महावीर ... "हे गौतम ! इस ऋषभादि चौबीसी से अनन्तकाल पूर्व अतीत में जो एक अन्य चौबीसी हुई थी, उसमें मेरे समान ही सात मुण्ड हाथ के शरीरोत्सेध वाले, संसार के लिये आश्चर्यस्वरूप, देवेन्द्रों द्वारा वन्दित एवं संसार में सर्वोत्तम धर्मश्री नामक चौवीसवें तीर्थङ्कर थे। उनके तीर्थकाल में सात आश्चर्य घटित हुए । उन धर्म श्री तीर्थङ्कर के निर्वाण के पश्चात् कालान्तर में असंयतों की पूजा सत्कार करवाने वाले आश्चर्य का प्रवाह प्रारम्भ हुआ । उसमें गतानुगतिक लोकप्रवाह के कारण मिथ्यात्व दोषवशात् बहसंख्यक जनसमूह को असंयतों की पूजा में अनुरक्त जान कर शास्त्र के मर्म से अनभिज्ञ तथा त्रिविध मद से विमुग्धमती नामधारी प्राचार्यों एवं महत्तरों ने अपने-अपने श्रावक-श्राविकाओं से धन ले ले कर अपनी अपनी इच्छानुसार सैकड़ों स्तम्भों से सुशोभित चैत्यालय बनवाये और वे गहित कुलक्षणों वाले 'यह मेरा है, यह मेरा है' यह कहते हुए उन चैत्यालयों में रहने लगे । वे उन चैत्यालयों में निवास कर अपने बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम को भुला कर बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम के स्वयं में विद्यमान होते हुए भी घोर अभिग्रहों एवं अनियत-अप्रतिहत विहार का परित्याग कर शिथिल हो, संयमादि की शूद्धि से पीछे की ओर हटकर, इह लोक तथा परलोक के अपवाद की उपेक्षा करते हुए दीर्घकाल तक संसार में भटकना स्वीकार कर उन मठों, देवालयों में ममत्व मूर्छाभाव से विमुग्ध एवं अहंकार से अभिभूत हो, स्वयमेव पुष्प-मालादि से देवार्चन करने लगे । उन्होंने समस्त आगम-शास्त्र के सारभूत सर्वज्ञों के इस वचन को बहुत दूर एक ओर फैक दिया, जो इस प्रकार है :-- "सब जीवों को, सब प्राणियों को, सब भूतों को, सब सत्वों को न तो मारना चाहिये, न संताप पहुंचाना चाहिये, न परिताप पहुंचाना चाहिये, न बद्ध-अवरुद्ध करना चाहिये, न उन्हें विराधना पहुंचानी चाहिये, न कष्ट पहुचाना चाहिये और न उद्वेग ही पहचाना चाहिये । जो भी सूक्ष्म, जो भी बादर, जो भी त्रस, जो भी पर्याप्ता, जो भी अपर्याप्ता, जो भी स्थावर, जो भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अथवा जो भी पंचेन्द्रिय प्राणी हैं, उन्हें एकान्ततः न मारा जाय और न संताप आदि पहंचाया जाय, यह सुनिश्चित है और है सत्य-तथ्य । उसी प्रकार वायु, अग्नि आदि के समारम्भ को मुनि सब भांति, सब प्रकार से सदासर्वदा वजित करे । यही धर्म ध्र व अर्थात् अटल है, शाश्वत है, नित्य है और यही धर्म खेदज्ञों-सर्वज्ञों ने समस्त लोकों के लिये बताया है, प्रवेदित किया है।" गौतम :- "हे प्रभो! जो कोई साध अथवा साध्वी, निग्रन्थ अथवा अणगार द्रव्यस्तव करता है, उसे क्या कहा जाता है ? " भ० महावीर :-- "हे गौतम ! जौ कोई साधु, साध्वी अथवा निर्ग्रन्थ अणगार द्रव्य-स्तव करता है, वह अजयी, असंयत, देवभोगी, देवार्चक और यहां तक कि उन्मार्गगामी, शील को दूर फेंकने वाला, कुशील अथवा स्वच्छन्दाचारी कहा जाता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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