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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
"हे गौतम ! इस प्रकार अनाचार में प्रवृत्त हुए उन आचार्यों के बीच में मरकतमणि के समान देहकान्तिवाले कुवलयप्रभ नामक एक महातपस्वी प्रणगार थे। वह प्रणगार जीवादि तत्वों के गूढ़ ज्ञान तथा शास्त्रों के तलस्पर्शी ज्ञान से सम्पन्न थे। उसे संसार सागर की विभिन्न जीव योनियों में उत्पन्न हो भटकने का बड़ा भय था। यद्यपि वह समय सर्वथा, सब प्रकार से धर्मतीर्थ अथवा जिनप्रवचन की मासातना करने वाले प्राचरण का युग अथवा काल था तथापि बहसंख्यक स्वधर्मियों में प्रवर्तमान उस प्रकार के असमंजसकारी अनाचार की स्थिति में भी वह तीर्थरों की प्राज्ञा के विपरीत कोई कार्य नहीं करता ।... .........." गौतम ! इस प्रकार विचरण करता हुआ, वह अणगार एक दिन सदा एक ही नियत स्थान (मठ-देवालय) में रहने वाले उन लोगों के आवास स्थान में माया।".....
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........... "गौतम ! कुवलयप्रभ को अन्यत्र विहारार्थ उद्यत देखकर उन कुलक्षण सम्पन्न, लिंगोपजीवी, प्राचारभ्रष्ट, उन्मार्गगामी, शिथिलाचारियों ने उस अणगार से कहा-"भगवन् ! यदि आप हमारे यहां एक चातुर्मासिक वर्षावासावधि तक रहें तो पापकी प्राज्ञा से सहज ही अनेक चैत्यालय बन जायें । अत : आप यहीं चातुर्मास करने की हम पर कृपा करें।"
"गौतम ! यह सुनकर उस महानुभाव कुवलयप्रभ ने कहा- "हे प्रियभाषियों! यद्यपि तुम जिनालयों की बात कह रहे हो, तथापि यह सावद्य अर्थात् पापपर्ण कार्य है, अतः मैं तो वचनमात्र से भी इस प्रकार का आचरण नहीं करूंगा। उन मिथ्याष्टि, वेषमात्र से साधु कहे जाने वाले वेषधारियों के बीच में निःशंकभाव से सिद्धान्त के सारभूत तत्व को यथावत् अविपरीत रूपेरण कहते हुए हे गौतम ! उस कुवलयप्रभ अरणगार ने तीर्थंकर नाम कर्म गोत्र का उपार्जन कर भवसागर को एक भवावशिष्ट मात्र कर लिया ।"
"उस समय वहां के संघ में एक बात को पकड़ कर, उसी का पुनः पुनः प्रलाप करने वाले अति वाचाल लोगों का जमघट था। उन पापबुद्धि वेषधरों एवं उनके उपासकों ने अनर्गल प्रलाप के साथ-साथ अट्टहास करते हुए परस्पर एक मत हो, एक-दूसरे के करतल पर तालीदान पूर्वक दुरभिसंधि की और उस महा तपस्वी कुवलयप्रभ का नाम सावज्जायरिय (सावद्याचार्य) रख दिया। इस प्रकार वाणी और कर्ण-परम्परा से उसका यह सावद्याचार्य नाम ही सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया ।"
"गौतम ! इस प्रकार के अप्रशस्त-अपशब्द से सम्बोधित अथवा पुकारे जाने पर भी वह कुवलयप्रभ किंचित्मात्र भी कुपित नहीं हुआ।"
"कालान्तर में एक दिन, सद्धर्म से पराङ्मुख, सागार एवं अणगार-दोनों ही
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