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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] [ ४६ प्रकार के धर्म से भ्रष्ट, वेषमात्र से प्रवजित उन दुराचारियों में परस्पर आगम सम्बन्धी विचार-विनिमय होने लगा कि श्रावकों के अभाव में श्रमण ही नुतन मठोंदेवालयों का निर्माण तथा क्षति-ग्रस्त मठ-देवालय आदि का जीर्णोद्धार करवायें और अन्यान्य जो भी करणीय कार्य हैं, उनका निष्पादन करें। इस प्रकार के निर्माण और जीर्णोद्धार के कार्य करने वाले साधु को भी किसी प्रकार का दोष लगने की सम्भावना नहीं है। उन लोगों में से कतिपय कहने लगे कि केवल संयम ही मोक्ष में ले जाने वाला है, जबकि उनमें से अन्य लोग कहने लगे-"प्रासाद-मण्डन, पूजा, सत्कार, बलि विधान आदि से तीर्थ का उत्थान होता है और तीर्थ का उत्थान करना ही मोक्षगमन है।" इस प्रकार तत्वज्ञान से अनभिज्ञ पापाचारी, जिसे जो साध्य था अथवा जिसे जो अच्छा लगा, उसी का उच्च स्वरों में उच्छं खलता-उद्दण्डतापूर्वक प्रलाप करने लगे और उनका विवाद संघर्ष का रूप धारण कर गया। उनमें कोई शास्त्र का मर्मज्ञ नहीं था, जो युक्त अथवा अयुक्त पर विचार कर प्रमाण प्रस्तुत करता । परस्पर एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए उनमें से कतिपय लोग कहने लगे कि अमुक-अमुक लोग अमुक-अमुक गच्छ के अनुयायी हैं। कुछ लोग कहने लगे-“तुम अमुक-अमुक लोग अमुक-अमुक गच्छ के मानने वाले हो ।” अन्ततोगत्वा उन्हीं में से कुछ लोगों ने कहा- "इस प्रकार के निरर्थक वितण्डावाद से कोई निष्कर्ष नहीं निकलने वाला है, इस विषय में सावधाचार्य का निर्णय हम सबके लिये प्रामाणिक होगा।" उन सब ने इस बात पर स्वीकृति प्रदान करते हए कहा-"ऐसा ही हो, सावधाचार्य को शीघ्रातिशीघ्र बुलाया जाय।" "तदनन्तर गौतम ! उन लोगों ने संदेशवाहक भेज कर उस सावधाचार्य को बुलवाया । सुदूरस्थ प्रदेश से अप्रतिहत विहार करता हुआ सावधाचार्य सात मास में उन लोगों के यहां पहुंचा। वहां एक साध्वी ने अति कठोर घोर तपश्चरण से शोषित तथा अस्थिचर्ममात्रावशिष्ट शरीर वाले एवं तपस्तेज से दैदीप्यमान सावधाचार्य को ज्योंही देखा, त्योंही उसका अन्तःकरण आश्चर्य से ओतप्रोत हो गया और वह मन ही मन विचारने लगी- "अहो ! क्या यह महानुभाव कहीं साक्षात् प्ररिहन्त अथवा मूर्तिमान धर्म ही तो नहीं हैं ! अधिक क्या कहा जाय देवेन्द्रों से वन्दित महापुरुषों द्वारा भी इनके चरणयुगल वन्दनीय हैं।" इस प्रकार विचार कर परा भक्ति वशात् भाव-विभोर हो आदक्षिणा-- प्रदक्षिणा कर वह सहसा अपने शिर से उसके पादयुगल का संस्पर्श करती हुई सावद्याचार्य के चरणों में गिर पड़ी । गौतम ! उस आर्या द्वारा सावधाचार्य को किये गये उस प्रणमन को उन दुराचारियों ने देख लिया।" "तदुपरान्त उन दुराचारियों द्वारा अभिवन्दित होता हुआ वह सावधाचार्य जिस प्रकार तीर्थंकरों ने उपदेश दिया था, उसी प्रकार गुरु से प्राप्त उपदेश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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