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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
अनुसार उन्हें नित्यप्रति अनुक्रमश : सूत्रों के अर्थ का व्याख्यान सुनाने लगा । वे लोग भी उसका उसी प्रकार श्रद्धान करने लगे। इस प्रकार सूत्रार्थ का व्याख्यान करते करते ग्यारहों अंग और चौदह पूर्व रूपी द्वादशांगी श्र तज्ञान का नवनीत तुल्य सारभूत, सकल पापपुज का परिहार एवं पाठों कर्मों का समूल नाश करने वाला तथा गच्छ की मर्यादा का प्रवर्तक महानिशीथ श्रु तस्कन्ध का यही पांचवां अध्ययन व्याख्यान के प्रसंग में आया । गौतम ! इस पंचम अध्ययन की व्याख्या करते समय यह गाथा आई :
जस्थित्थिकर-फरिसं अंतरिय कारणे वि उप्पन्ने । अरहा वि करेज्ज सयं, तं गच्छं मूल गुण मुक्कं ।।
अर्थात्-- जिस गच्छ में किसी विशिष्ट कारण के उपस्थित होने की दशा में भी यदि स्वयं तीर्थंकर भी स्त्री का स्पर्श करे तो वह गच्छ मूल गुणरहित है ।" ।
"गौतम ! इस गाथा के आने पर वह सावद्याचार्य सशंक एवं उद्विग्न हो सोचने लगा--"यदि मैं इस गाथा का यथावत् वास्तविक अर्थ बताता हूं तो उस आर्या ने वन्दन करते समय जो अपने मस्तक से मेरे पैरों का स्पर्श किया था, वह इन सभी लोगों ने देखा था अतः जिस प्रकार पहले इन लोगों ने मेरा नाम सावद्याचार्य रख दिया था, उसी प्रकार अब भी मुद्रांकन तुल्य मेरा कोई और भी अप्रशस्त नाम रख देंगे, जिसके परिणामस्वरूप मैं सर्वत्र अपूज्य हो जाऊंगा। यदि मैं सूत्रार्थ को यथार्थ से भिन्न किसी और ही रूप में बताता हूं तो उससे तो प्रवचन की बड़ी भारी आसातना होगी । ऐसी दशा में अब मुझे यहां क्या करना चाहिए? क्या मैं इस गाथा को बिना अर्थ किये यों ही छोड़ दू अथवा इसका भिन्न रूप से अर्थ कर दू? हाय हाय ! ये दोनों ही कार्य उचित नहीं हैं, क्योंकि आत्म-कल्याण चाहने वालों के लिये ये दोनों ही कार्य अत्यन्त घणास्पद हैं। अतः सिद्धान्त में यह स्पष्टतः कहा गया है कि जो भी साधु द्वादशांगी रूपी श्र तज्ञान के किसी पद, अक्षर, मात्रा और यहां तक कि एक बिन्दु को भी कहीं कभी भूल, स्खलना, प्रमाद, आशंका अथवा भयवशात् छोड़ दे, छूपा दे, यथार्थ से भिन्न रूप में प्ररूपणा करे, सूत्रार्थ का संदिग्ध रूप में व्याख्यान करे अथवा अनुयोग का विहित विधि से विपरीत विधि में व्याख्यान करे तो वह साधु अनन्तकाल तक संसार में भटकता रहेगा । तो भले ही अब जो कुछ भी होना है, वह हो जाय, पर मैं तो सूत्रार्थ का उसी रूप में व्याख्यान करूगा, जैसा कि उसका वास्तविक अर्थ है और जैसा कि मैंने अपने गुरु से सुना है।"
"गौतम ! इस प्रकार का निश्चय कर उसने इस गाथा के प्रत्येक शब्द एवं प्रत्येक पद की पूर्णत: विशुद्ध एवं यथार्थ रूप में व्याख्या करदी। गौतम ! उसी समय उन दुष्ट एवं अशिष्ट लक्षण लांछित लोगों ने कहा-"यदि इस गाथा का
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