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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] [ ५१ यह अर्थ है तो तुम भी मूल गुण-विहीन हो । तुम्हें स्मरण होना चाहिए कि उस दिन उस आर्या ने तुम्हें वन्दन करते समय अपने मस्तक से तुम्हारे चरणों का स्पर्श किया था।" ___ “गौतम ! यह सुनते ही अपयश के भय से उस सावधाचार्य का मुख म्लान हो गया । "पहले तो इन लोगों ने मुझे सावधाचार्य की संज्ञा दी, अब न मालम ये लोग मेरा बरे से बरा क्या नाम रखेंगे और मैं संसार में अपज्य और निन्द्य हो जाऊंगा। अब मैं अपयश से बचने के लिए इन्हें क्या सफाई दूं।" इस प्रकार विचार करते हुए उसे तीर्थंकर के इन वचनों का स्मरण आया-"जो कोई आचार्य, गणधर, महत्तर, गच्छाधिपति अथवा श्रुतधर हो, वह सर्वज्ञ, अनन्त ज्ञानियों द्वारा जिन जिन पापायतनों का प्रतिषेध किया गया है, उन सवको शास्त्र के अनुसार भली-भांति समझ कर उन पांप स्थानों का किसी भी रूप में न तो स्वयं सेवन करे और न उनका सेवन करने वालों का अनुमोदन ही करे। वह क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, हास्य, गर्व-दर्प, प्रमाद, अभाव, चूक अर्थात् स्खलनावशात् दिन में अथवा रात में एकाकी अथवा परिषद् में बैठे हुए, सुप्तावस्था अथवा जागत प्रवस्था में मन, वचन एवं काय-योग-इन तीनों योगों द्वारा अथवा इन तीनों में से किसी एक के द्वारा भी, जो कोई इन पदों का विराधक होगा, वह भिक्षु पुनः पुनः निन्दनीय, गर्हणीय, लताड़ने योग्य, घृणास्पद, समस्त लोक में प्रताड़ित-पराभूत, विविध व्याधियों के मन्दिर तुल्य शरीर वाला होकर एकान्त दुःखपूर्ण नरक आदि योनियों में उत्कृष्ट स्थिति की आयु भोगता हुआ अनन्तकाल तक संसार सागर में भटकता रहेगा । अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता हुमा वह कभी कहीं पर एक क्षण मात्र के लिये भी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा।" ___"ऐसी स्थिति में प्रमाद के वशीभूत हए मुझ पापी, अधमाधम, सत्वहीन कापुरुष के समक्ष यह जो घोर संकट उपस्थित हुआ है, इसका कोई युक्तिसंगत प्रत्युत्तर देने में मैं असमर्थ हूं । यदि मैं सूत्रार्थ से विपरीत उत्तर देता हूं तो परलोक में अनन्तकाल तक भवभ्रमण करता हुआ घोर दारुण दुःखानुबन्धी अनन्त दुःखों का भागी बन जाऊंगा। हाय ! मैं कितना दुर्भाग्यशाली हूं।' इस प्रकार के विचारों में सावधाचार्य को डूबा हा देखकर गौतम ! उन दुराचारी पापिष्ठ, दुष्ट श्रोताओं ने समझ लिया कि यह मृषावाद के भय से दुविधा में फंस गया हैअर्थात् एक ओर मूलगुण-रहित होने का डर और दूसरी पोर. जो गाथा का अर्थ बताया है, उससे मुकरने पर मृषावाद का डर है । उसे संक्षुब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ देखकर उन दुष्ट श्रोताओं ने उससे कहा:-"जब तक इस संशय को नहीं मिटा दिया जायगा, तब तक व्याख्यान नहीं उठेगा। आप यहीं बैठे रहकर कदाग्रह को नष्ट करने में समर्थ ठोस एवं प्रबल युक्तियों से इस प्रश्न का समाधान कीजिये।" । "इस पर सावद्याचार्य ने मन ही मन सोचा-"समाधानकारी उत्तर दिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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