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________________ ५२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ बिना मुझे इनसे छुटकारा मिलने वाला नहीं है । पर क्या समाधान रखू?" यह सोचकर वह पुनः विचारमग्न हो गया।" "गौतम ! इस पर उन दुराचारियों ने सावधाचार्य से पुन: कहा- "चिन्तासागर में डूबे हुए किस कारण बैठे हो ? शीघ्र ही इसका स्पष्टीकरण करो। वह समाधान सूत्रसम्मत और निर्दोष होना चाहिये।” "तदनन्तर मन ही मन संतप्त होते हुए सावद्याचार्य ने कहा---"तीर्थकरों ने इसी कारण कहा है कि अयोग्य को सूत्र का ज्ञान नहीं देना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार कच्चे घड़े में डाला गया जल उस घड़े का विनाश कर देता है, उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को सिद्धान्त का रहस्य बताया जाय तो वह सिद्धान्त का रहस्य उस अयोग्य व्यक्ति का सर्वनाश कर डालता है।" "इस पर उन लोगों ने पूनः कहा- "इस प्रकार अंट-शंट, असम्बद्ध एवं दुर्भाषापूर्ण प्रलाप क्यों कर रहे हो? यदि समाधान नहीं कर सकते तो इस पूज्य प्रासन से नीचे उतरो और हमारे इस स्थान से शीघ्र ही बाहर निकल जाओ। दैव (भाग्य) कैसा रुष्ट हया है कि समस्त संघ ने तुम जैसे व्यक्ति को भी प्रामाणिक मानकर सिद्धान्तों पर प्रवचन करने की अनुज्ञा प्रदान की है।" "गौतम ! तत्पश्चात् सावधाचार्य ने पुनः बड़ी देर तक मन ही मन चिन्ता से जलते हुए अन्य कोई समाधान न पा सुदीर्घ काल तक संसार में भटकना स्वीकार कर कहा--"तुम लोग कुछ भी नहीं समझते । अागम वस्तुतः उत्सर्ग और अपवादइन दो मूल आधारों पर अवस्थित है। एकान्त का नाम ही मिथ्यात्व है। जिनेश्वरों की आज्ञा तो अनेकान्त है।" __"सावधाचार्य के इस वचन को सुनते ही गगन में घुमड़ती हुई वर्षा ऋतु की प्रथम घन-घटा के गर्जन को सुनकर जिस प्रकार मयूर मुदित हो मधुर पालाप करते हुए नाच उठते हैं, ठीक उसी प्रकार उन दुष्ट श्रोताओं के मन-मयूर नाच उठे और उन्होंने सावद्याचार्य का बड़ा सम्मान करते हुए उनके उन वचनों की भरि-भूरि-श्लाघा की।" "गौतम ! इस एक ही वचन-दोष से उस सावधाचार्य ने अनन्त-संसारित्व का बन्ध कर लिया और उस महा क्षुद्र संघ के जमघट के समक्ष उस पाप की पालोचना न करने के कारण अनन्त संसार का भागी बना.......।'' १. गोयमा ! रणं इप्रो य उसभादि तित्थंकर चउवीसगाए अगतेणं कालेणं जा प्रतीता अन्ना चउवीसगा तो एग वयण दोसेरणं गोयमा ! निबंधिऊरणाणंत संसारियत्तणं ....... । ......"महानिशीथ. अ० ५ (अप्रकाशित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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