SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] .. { ५३ महानिशीथ का यह उल्लेख सभी दृष्टियों से बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इसमें अन्यत्र अनुपलभ्य अनेक ऐतिहासिक तथ्य भरे पड़े हैं। अधिकांश प्राचार्य और श्रमण सामूहिक रूप से विशुद्ध श्रमणाचार और श्रमण के मूल गुणों को तिलांजलि दे मिथ्यात्वी और मिथ्यात्व के पोषक बन जाते हैं। उनमें श्रमण के योग्य गुणों का लेशमात्र भी नहीं रहता । केवल वेष मात्र से वे नाम मात्र के साधु होते हैं । असंयतिपूजा नामक उस आश्चर्य के प्रभाव से श्रावक-श्राविका वर्ग भी बहत बड़ी संख्या में उन्हीं नाम मात्र के साधु वेपधारी असंयतियों का उपासक और अनुयायी बन जाता है। तीर्थंकरों की प्राज्ञा की अवहेलना कर वे अपने अपने श्रावक-श्राविका वर्ग से धन लेकर भव्य और विशाल चैत्यों का निर्माण करवा कर, उन चैत्यालयों को अपनी निजी सम्पत्ति वना लेते हैं। वे असंयति साध्वाचार का पूर्णतः परित्याग कर साध के लिये परमावश्यक कर्तव्य अप्रतिहत विहार, निर्दोष भिक्षाचरी, परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग आदि उत्तम गुणों को तिलांजलि दे अपने अपने चैत्यों में नियत निवास और आधाकर्मी पाहार आदि ग्रहण कर साधुत्व पर कलंक कालिमा पोत देते हैं । शास्त्रों में तीर्थंकरों का स्पष्ट आदेश है कि कोई भी श्रमण धर्म के लिये, स्वर्ग के लिये, अपवर्ग के लिये अथवा कर्मवन्धन को काटने के लिये भी पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस काय की हिंसा न करे, न किसी दूसरे से इन षड्जीवनिकाय के जीवों की कदापि हिंसा करवाये और जो लोग धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिये, जन्म, जरा, मृत्यु से सदा के लिये छुटकारा पाने के लिये हिंसा करते हैं, उनके इस हिंसा कार्य की तीन करण और तीन योग से कभी किसी भी दशा में अनुमोदना नहीं करें। परन्तु तीर्थंकरों की इस विश्वबन्धुत्व से अोतप्रोत, विश्व के सचराचर समस्त प्राणियों के लिये कल्याणकारिणी प्राज्ञा का उल्लंघन कर वे मिथ्यात्व-दोषग्रस्त नाम मात्र के प्राचार्य और साधु जिनमन्दिरों का निर्माण करवाते हैं और इस प्रकार चैत्यालयों के निर्माण कार्य में होने वाली पृथ्वी, आप, तेजस् वायु, वनस्पति और त्रस -- इन षड्जीवनिकायों की घोर हिंसा के पाप से अनन्त काल तक दुःखपूर्ण दुर्गतियों से अोतप्रोत भवभ्रमण के अधिकारी बनते हैं। वे यह नहीं सोचते कि तीर्थकरों ने धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष तक के लिये षड्जीव निकाय के जीवों की त्रिकरण त्रियोग से हिंसा करने, करवाने और करने वाले की अनुमोदना तक करने का स्पष्ट रूप से निषेध किया है । तीर्थंकरों की इस आज्ञा के अनुसार साधु षड्जीव निकाय के संहारकारी चैत्यनिर्माण आदि कार्य के लिये वचनमात्र से भी संकेत तक नहीं कर सकता। महानिशीथ के उपर्युल्लिखित आख्यान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि 'असंयति-पूजा' नामक आश्चर्य के प्रभावकाल में यद्यपि चारों ओर मिथ्यात्व दोषग्रस्त असंयतों और उनके अनुयायियों का अत्यधिक प्रभाव और वर्चस्व रहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy