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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
तथापि विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले स्व-पर हितसाधक सच्चे श्रमणों का स्वल्पाधिक मात्रा में अस्तित्व अवश्य रहता है और वे सच्चे क्रियानिष्ठ श्रमण निर्ग्रन्थ प्रवचन का सर्वज्ञ-वीतराग प्रभु की वाणी का यथावत् उपदेश देते हैं ।
महानिशीथ के इस पाख्यान में सिद्धान्त के सारभूत तत्व का यथार्थ रूप में-.. यथावत् स्वरूप में प्रतिपादन का उत्कृष्ट फल और यथार्थ रूप से भिन्न रूप में प्रतिपादन का अनन्त दुःखानुबन्धी एवं सर्वस्व-विनाशकारी दुष्फल भी बताया गया है।
"तीर्थकर की आज्ञा उत्सर्ग और अपवाद के रूप में अनेकान्त है । एकान्त तो मिथ्यात्व है।" उपर्युक्त आख्यान में सावधाचार्य के इस कथन का उल्लेख है जो कि उन्हें अपने बचाव का और कोई रास्ता न दिखने पर मजबूरी की दशा में कहना पड़ा था। सावधाचार्य के इस कथन को सुन कर चैत्यवासियों के हर्षातिरेकवशात् प्रफुल्लित-प्रमुदित होने का भी इस आख्यान में उल्लेख है । यह कथन गूढ़ रहस्य से
ओतप्रोत और गम्भीरता पूर्वक मननीय एवं विचारणीय है। चैत्यवासी वस्तुत: सावधाचार्य के मुख से यही कहलवाना चाहते थे। इसमें जो गूढ़ रहस्य भरा हुआ है वह यह है कि तीर्थंकर महाप्रभु की यह स्पष्ट रूप से आज्ञा है कि साधु षड्जीवनिकाय के जीवों के प्रारम्भ समारम्भ का कोई भी कार्य न करे, न उस प्रकार का कार्य वह दूसरे से करवाये, और न ही इस प्रकार का कार्य करने वाले का अनुमोदन ही करे । प्रत्येक साधु के लिये तीर्थकर प्रभू का यह उपदेश जीवन-पर्यन्त अपरिहार्य अनिवार्य रूपेण पूर्णत: पालनीय है, सदा-सर्वदा शिरोधारणीय है। इसमें किसी भी प्रकार के अपवाद के लिये किचित्मात्र भी स्थान नहीं है। प्रभू के इस आदेश का जो साधु एकान्तत: पालन नहीं करता, उसमें अपवाद को अवकाश देने की चेष्टा करता है, वह वस्तुतः श्रमणत्व से भ्रष्ट हो जाता है । मोक्ष-प्राप्ति की कामना से बढ़ कर नो कोई कामना हो ही नहीं सकती। तो फिर महाप्रभू ने मोक्ष-प्राप्ति के लिये भी पड़जीवनिकाय में से किसी भी निकाय के एक भी जीव की हिंसा करने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है।
____इस प्रकार की स्थिति में चैत्यवासियों द्वारा चैत्यालयों का निर्माण करवाना जिनाज्ञा का स्पष्टत: उल्लंघन करना ही है। पर चैत्यवासियों को यह सब स्वीकार नहीं था। वे जिनाज्ञा में, पागम-वचन में-सिद्धान्त में-अपवाद का प्रावधान रख कर चैत्यालयों के निर्माण को मोक्षप्राप्ति का साधन स्वयं तो मानते ही थे पर इसके साथमाथ दूसरों से भी मनवाना चाहते थे, इसके लिये प्रयास करते रहते थे। उन्होंने प्राचार्य कुवलयप्रभ मे आकस्मिक विचित्र स्थिति में अनायास ही हुए प्रमाद का अनुचित लाभ उठाने का प्रयास किया । उपयुक्त अवसर पर उन्होंने कुवलयप्रभ को घोर धर्मसंकट में डाला । इस सव के पीछे उनका सुनिश्चित और सुनियोजित उद्देश्य यही था कि कुवलयप्रभ जैसे प्रागम-मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, निस्पृह और शास्त्राज्ञानुमार विशुद्ध श्रमगणाचार का पालन करने वाले श्रमणश्रेष्ठ के मुख से
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