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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] अपने अनुयायियों के समक्ष जिनाज्ञा के सम्बन्ध में भी उत्सर्ग और अपवाद की बात येन केन प्रकारेण कहलवा कर अपने पक्ष की प्रतिष्ठा बढायें । चैत्यवासी तो अपने उद्देश्य की सिद्धि में सफल हो गये पर जिनाज्ञा में, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकरों के वचन में उत्सर्ग और अपवाद की दोषपूर्ण बात कहने के फलस्वरूप, विशुद्ध श्रमरण परम्परा के प्रतीक होते हए भी प्राचार्य कुवलयप्रभ अनन्तकाल तक नरक, तिर्यंच आदि योनियों में भटकने के भागी बन गये। इस आख्यान में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि संसार सागर को एक भवावशिष्ट मात्र कर लेने वाला महान साधक भी निर्ग्रन्थ प्रवचन की, तीर्थंकरों की वाणी की अयथार्थ रूप में निरूपणा करने से अनन्त काल तक भयावहा भवाटवी में भटकने जैसी दुर्दशा से ग्रस्त हो जाता है । __ "इतिहास अपने आपको दोहराता है" इस उक्ति के अनुसार--- इतिहास के घटनाचक्र का पुनः पुनः परावर्तन होता रहता है। तदनुसार अनन्त अवसर्पिणियों पूर्व की किसी एक अवसर्पिणी में असंयती-पूजा नामक आश्चर्य के प्रवाहकाल में चैत्यवासियों द्वारा धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप में जिस प्रकार की, परिवर्तन करने की, विकृतियां उत्पन्न करने की घटनाएं घटित हुई, ठीक उसी प्रकार की घटनाए प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में भी हमारे यहां घटित हुई हैं। विचारपूर्वक देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर के निर्वाण से लगभग ८५० वर्ष पश्चात् अस्तित्व में आये चैत्यवासी संघ को लक्ष्य कर अनन्त अतीत के इस पाख्यान को महानिशीथ में स्थान दिया गया है । इस आख्यान से यह हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता है कि चैत्यवासी परम्परा का जन्म किन परिस्थितियों में और कब हुआ। आज अधिकांश जैन धर्मावलम्बी वस्तुतः चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचलित की गई द्रव्य पूजा अथवा द्रव्य परम्परा से ही कतिपय अंशों में प्रभावित हैं । ___चैत्यवासी परम्परा द्वारा धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप में किसकिस प्रकार के परिवर्तन किये गये, इस सम्बन्ध में यथासम्भव प्रकाश डालने का अब प्रयास किया जायगा। धर्म और श्रमणाचार के मल स्वरूप में चैत्यवासी परम्परा द्वारा किये गये परिवर्तन यों तो वीर नि० सं० ८५० के आसपास ही कतिपय निर्ग्रन्थ श्रमण, निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतिपादित श्रमणोचित आचार और आस्थाओं तथा उग्र विहार को तिलांजलि दे अपनी इच्छानुसार जिन चैत्यों-जिनमन्दिरों का निर्माण करवा कर, उनमें स्थिरवास नियतवास करने के साथ ही साथ अनेषणीय, अकल्पनीय प्राधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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