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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
कर्मी प्रहार लेने लग गये थे, तथापि मूल निर्ग्रन्थ परम्परा के ग्रागम निष्णात त्यागी, तपस्वी, उग्रविहारी पूर्वघर प्राचार्यों की विद्यमानता के कारण वे निर्ग्रन्थ प्रवचन से प्रतिकूल आस्था और प्रचार वाले शिथिलाचारी चैत्यवासी जैन समाज के मानस में कोई शीर्ष स्थान अथवा सम्मान उस समय तक प्राप्त करने में असफल रहे ।
देवरि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण काल ( लगभग वीर नि० सं० १०००) तक वे आगम विरुद्ध प्रास्था और शिथिलाचार फैलाने में असमर्थ रहे । चैत्यवासियों की इस असफलता का प्रमाण हमें नवांगी वृत्तिकार अभयदेव सूरि • द्वारा रचित 'ग्रागम प्रट्ठोत्तरी' की निम्नलिखित गाथा से मिलता है :
देवfso खमासमरण जा, परंपरं भावओो वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दव्वेरण परंपरा बहुहा ॥
अर्थात् - देवद्धि क्षमाश्रमरण तक तो भाव परम्परा ( भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित मूल परम्परा ) प्रक्षुण्ण रूप से चलती रही, यह मैं जानता हूं । पर देवद्धिगरि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर साधु प्रायः शिथिलाचारी बन गये और उसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराएं स्थापित कर दी गईं-- प्रचलित कर दी गईं ।
पूर्वापर ऐतिहासिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नीर-क्षीर विवेकपूर्ण सम से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रभयदेव सूरि के निर्णायक प्रान्तरिक उद्गार भली-भांति तथ्यपूर्ण प्रतीत होते हैं । वस्तुतः देवगिरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् भगवान् महावीर के श्रमरण-श्रमणी संघ की ही नहीं अपितु चतुविध संघ की भी स्थिति पूर्वापेक्षया अधिकांशत: विपरीत हो गई ।
देवद्ध के स्वर्गारोहण काल तक निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतिपादित जैन धर्म के मूल स्वरूप, मूल प्राचार, मूल आस्थाओं एवं मान्यताओं का उपासक धर्मसंघ सुसंगठित, सुदृढ़, तेजस्वी, बहुजनमान्य तथा सबल रहा और चैत्यवासी संघ नितान्त निर्बल, नगण्य रहा । उस समय तक यह बहुजनमान्य नहीं बन पाया । परन्तु अन्तिम पूर्वधर आर्य देवगिरिण के स्वर्गस्थ होने के थोड़े समय बाद ही चैत्यवासी संघ का बड़ी तीव्र गति से सर्वत्र विस्तार हुआ । चैत्यवासी संघ सशक्त, सुदृढ़, देशव्यापी एवं बहुजनमान्य बन गया । चैत्यवासी संघ के प्रबल प्रचार के फलस्वरूप मूल आचार की मान्यताओं एवं आस्थाओं का उपासक धर्मसंघ निर्बल, विघटित एवं प्रत्यल्प जनमान्य होता चला गया ।
अन्तिम पूर्वधर और अन्तिम वाचनाचार्य आर्य देवद्विगरि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के उत्तरवर्ती काल के घटनाक्रम के पर्यवेक्षरण से ऐसा प्रतीत होता है
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