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वीर निर्वाण से देवदि-काल तक ]
[ ३७
“एवं च समयसारपरं तत्तौं जहट्ठियं, अविवरीयं, णीसंकं, भणमाणेण तेसिं. मिच्छदिट्ठी लिंगीणं साहुवेस धारीणं मझे गोयमा ! आसकलियं तित्थयरनामकम्मगोयं तेणं कुवलयपभेणं एकभवावसेसी को भवोयही ।"
अर्थात-इस प्रकार वीतराग अर्हत प्ररूपित शास्त्र के परम सारभूत तथ्य को उन मिथ्यादृष्टि केवल वेष और नामधारी साधुओं के समक्ष निःशंक भाव से प्रस्तुत करते हुए उस आचार्य कुवलयप्रभ मे तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन कर संसार को मात्र एक भवावशिष्ट ही कर दिया।
उन शिथिलाचारी चैत्यवासियों ने प्राचार्य कुवलयप्रभ के इस आगमानुसारी कथन को अपने कल्पित धर्म-स्वरूप पर वजाघात तुल्य समझ कर रुष्ट हो आचार्य कुवलयप्रभ का नाम सावधाचार्य रख दिया और सर्वत्र उनका वही नाम प्रसिद्ध कर दिया।
यह तो हुआ जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप आचरण और प्ररूपरण का फल ।
इसके विपरीत जैन धर्म के स्वरूप का, जिन प्रवचन का वास्तविकता से भिन्न विपरीत प्ररूपण का फल भी महानिशीथ में बताया गया है। उस उल्लेख का संक्षिप्त सार इस प्रकार है :
कालान्तर में साधुओं द्वारा मन्दिरों के निर्माण और जीर्णोद्धार के प्रश्न को लेकर उन्हीं शिथिलाचारी चैत्यवासियों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो गया। उसके निर्णय के लिए उन्होंने उसी सावद्याचार्य को बुलाया । उनके स्थान पर सावधाचार्य के आने पर भावावेश में एक प्रार्या ने सब के समक्ष सावधाचार्य को वंदन करते हुए उनके चरणों का अपने मस्तक से स्पर्श कर लिया)। सावद्याचार्य ने उन चैत्यवासियों के समक्ष आगमों का वाचन प्रारम्भ किया ।एकदा शास्त्रवाचन के समय - का गान का
जत्थित्थी कर फरिसं, अंतरिय कारणे वि उप्पन्ने । अरहा वि करेज्ज सयं, तं गच्छं मूल गुणं मुक्कं ।।।
अर्थात् - जिस गच्छ में किसी विशिष्ट कारण के उपस्थित हो जाने पर भी यदि स्वयं तीर्थंकर भी स्री का स्पर्श करे तो वह गच्छ मूल गुण से रहित है ।
इस गाथा को छोड़ देने या दूसरा ही अर्थ करने का विचार कुवलयप्रभ के मन में पाया पर दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करने की अपेक्षा अपयश सहन कर उन्होंने गाथा का वास्तविक अर्थ सुना दिया।
इस गाथा का अर्थ बताते समय चैत्यवासियों ने प्रार्या द्वारा किये गये
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