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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
"जहाणं भयवं ! जइ तुममिहई एक्कवासारत्तियं चाउम्मासियं पउजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालगे भवंति गुणं तुज्झाणत्तीए । ता कीरउ अणुग्गहमम्हाणं इहेव चाउम्मासियं।"
___ भवभीरु प्राचार्य कुवलयप्रभ ने विचार किया- "मैंने जिनप्ररूपित आगमानुसार पंच महाव्रतों को अंगीकार किया है । सर्वविध प्राणातिपात-विरमण रूप प्रथम महाव्रत अंगीकार करते समय मैंने पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस-काय-इन षट्जीवनिकायों के प्रारम्भ-समारम्भ रूप प्राणातिपात का तीन करण और तीन योग से जीवनपर्यन्त सर्वथा त्याग किया है। जिनालयों के निर्माण में इन सभी षट जीवनिकायों का प्रारम्भ-समारम्भ होना अवश्यंभावी है । जिनालयों के निर्माण का उपदेश देना तो दूर, यदि मैंने वचन मात्र से भी निर्माण कार्य का अनुमोदन कर दिया तो मैं अपने प्रथम महाव्रत का भंग कर दूगा और उस महाव्रत भंग के घोर पाप के परिणामस्वरूप मैं अनन्त काल तक जन्मजरा-मरण अादि असह्य दुःखों से परिपूर्ण भयावहा भवाटवी में भटकता रहूंगा।"
ऐसा विचार कर कुवलयप्रभ प्राचार्य ने उन शिथिलाचारी चैत्यवामियो के प्रार्थनापूर्ण प्रस्ताव को अस्वीकार करते हए कहा--"भो भो पियवाए ! जइ वि जिणालये, तहावि सावज्जमिणं, पाहं वायमित्तणं पि प्रायरिज्जा ।"
अर्थात्- "हे प्रियवादियो ! यद्यपि तुम जिनालयों के निर्माण की बात कह रहे हो, तथापि यह कार्य सावद्य कर्मयुक्त है--दोषपूर्ण है, अत: मैं वचनमात्र मे भी इस प्रकार का आचरण नहीं करूंगा-इस प्रकार के सावद्य कार्य में किसी भी तरह किचित्मात्र भी भागीदार नहीं बनूगा ।"
__ प्राचार्य कुवलयप्रभ का उपयुक्त कथन पार पाचरण-दोनों ही शुद्ध सिद्धान्त के अनुसार और मूल आगमों में प्रतिपादित जैन धर्म के मूल स्वरूप के अनुरूप थे।
ऐसे घोर सक्रान्तिकाल में, जिस समय चारों ओर पागमविरुद्ध आचारवित्रा वाले शिथिलाचारियों-चैत्यवासियों का बोलबाला हो, उस समय शिथिलाचारियों के सुदृढ़ गढ़ में, उनके सम्मुख भरी सभा में उनकी आशावल्लरी पर तुपारापात तुल्य एवं उनके अस्तित्व को ही चुनौती देने जैसी आगमानुसारी जैन धर्म के स्वरूप की बात कहना वस्तुत: बड़े ही साहस का कार्य था, प्रवचन के प्रति उत्कट भक्ति का अनुपम उदाहरण था। जिनवारणी का यथातथ्य रूपेण निरूपण कर जिन-प्रवचन के प्रति प्राचार्य कुवलयप्रभ ने जो उत्कट भक्ति प्रदशित की, उसके सम्बन्ध में महानिशीथकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
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