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________________ वीर दिर्वारण से देवद्ध-काल तक ] [ ३५ तीर्थंकरों द्वारा बताये हुए धर्ममार्ग पर चलने वाला राग-द्वेष रहित मुमुक्षु है । वह धर्मतीर्थ पर ही स्थित एवं संसार रूपी पुष्करिणी के कीचड़ रूपी काम-भोगों (विषय- कषायों से दूर रह कर पद्मवर पुण्डरीक के समान पुण्यशाली भव्य जीवों को वीतरागवाणी का शब्द उपदेश सुनाता है । उपदेश द्वारा उन्हें पुष्करिणी के तट रूपी धर्मतीर्थ पर आने के लिये आह्नान करता है। संसार रूपी पुष्करिणी के कर्म रूपी जल एवं विषय कषाय एवं काम-भोग रूपी कीचड़ से उन भव्यों को बाहर निकाल कर ऊपर उठने मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा देता है । इस रूपक के द्वारा यही बताया गया है कि षट्जीवनिकाय के आरम्भसमारम्भ से होने वाली सभी प्रकार की हिंसा के त्यागी ही अहिंसामूलक धर्म के विशुद्ध स्वरूप का उपदेश देकर स्वयं मुक्त होने के साथ-साथ दूसरों को मुक्त कर सकते हैं । यह है जैन धर्म का शाश्वत मूल स्वरूप । इसके प्रथम दिग्दर्शन में ही षट्जीवनिकायों के प्रारम्भ समारम्भ के त्याग का और विश्वबन्धुत्व एवं प्राणिवात्सल्य का कितना स्पष्ट उपदेश, निर्देश व मार्गदर्शन है। तीर्थंकर प्रभु महावीर का यह उपदेश, यह निर्देश और यह मार्गदर्शन वस्तुतः अनिवार्यरूपेण प्रत्येक श्रमण के लिये जिनाज्ञा के रूप में शिरोधार्य तथा प्रत्येक जैन के लिये यथाशक्य प्राचरणीय एवं पूर्णतः श्रद्धय होना चाहिये । जो साधक जैनधर्म के इस स्वरूप को हृदयंगम कर जिनेश्वर के उपदेश को आज्ञा के रूप में शिरोधार्य कर अपने साधना - जीवन में जिस अनुपात से उसका पालन करता है, वह उसी अनुपात से अपने कर्मबन्धनों को काटता है। इसके विपरीत जो साधक इस मूल स्वरूप से भिन्न आचरण अथवा उपदेश करता है, वह भयावहा भवाटवी में सुदीर्घ काल तक भटकता रहता है । इन दोनों ही प्रकार की अवस्थाओं में साधक को मिलने वाले फलों का स्पष्ट रूपेरण चित्ररण करने वाला एक बड़ा ही सारगर्भित उदाहरण महानिशीथ में उपलब्ध होता है । उसका सारांश इस प्रकार है : "अनन्त प्रतीत पूर्व हुण्डावसर्पिणी काल में प्रसंयती-पूजा नामक प्राश्चर्य हुआ । उसके प्रभाव से सर्वतोव्यापी शिथिलाचार के संक्रान्तिकाल में भी पंच महाव्रतधारी कुवलयप्रभ नामक एक आचार्य ने घोरातिघोर अपयश को तो सहर्ष स्वीकार कर लिया परन्तु रक्षणीय प्राणातिपात विरमण रूप अपने प्रथम महाव्रत में किसी भी प्रकार का दोष नहीं आने दिया | सर्वतोव्यापी घोर शिथिलाचार के युग में शिथिलाचारी चैत्यवासियों ने आचार्य कुवलयप्रभ की अलौकिक प्रतिभा, विशिष्ट त्याग - वैराग्यपूर्ण जीवन और तपश्चर्या का अनुचित लाभ उठाने की अभिलाषा से उनसे प्रार्थना की- "भगवन् ! यदि आप हमारे इस क्षेत्र में प्रागामी चातुर्मासिक अवधि में विराजें तो आपके उपदेश से अनेक भव्य नव्य जिनालयों का निर्माण हो सकता है ।" महानिशीथ का वह मूल पाठ इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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