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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
में फंसे हुए उन तीनों पुरुषों को अकुशल तथा अपने आपको दक्ष एवं सक्षम बताते हए उस पुण्डरीक को प्राप्त करने की अभिलाषा से उस पृष्करिणी में प्रवेश किया, पर वह भी श्वेत कमल तक नहीं पहुंच सका, तट और पद्मवर पुण्डरीक के बीच में ही पुष्करिणी के घोर दलदल में फंस गया।
कुछ ही क्षरणों के अनन्तर पांचवां पुरुष--एक साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से पुष्करिणी के पास पहुंचा । वह छः काय के जीवों के प्रारम्भ-समारम्भ का त्यागी, राग-द्वेष से रहित और मुमुक्षु था। उसने भी पद्मवर पुण्डरीक को तथा उसके लेने के प्रयास में गहन कीचड़ के बीच फंसे हुए चार पुरुषों को देखा । उसने कहा:-"ये चारों ही पुरुष पुण्डरीक को प्राप्त करने की अभिलाषा से सहसा पुष्करिणी में प्रविष्ट हो गये और कीचड़ में फंस गये । वस्तुतः ये अकुशल हैं। ये सत्पुरुषों द्वारा प्राचरित मार्ग को बिना जाने ही इस पंकपूर्ण पुष्करिणी में प्रविष्ट हो गये हैं। वास्तव में ये तत्वज्ञानविहीन और पुण्डरीक को प्राप्त करने की विधि से अनभिज्ञ हैं। मैं पुण्डरीक को प्राप्त करने की विधि जानता हूं। इस सुन्दर श्वेत कमल को मैं अवश्य ही प्राप्त करूगा । पर इनके समान में इस सरोवर में प्रवेश नहीं करूंगा, कीचड़ में नहीं फंसूगा। मैं इस पुष्करिणी के दलदलपूर्ण जल से दूर रहकर ही इस पद्मवर पुण्डरीक को प्राप्त करूगा। इस प्रकार का दृढ़ निश्चय कर उस मुमुक्षु साधु ने उस पुष्करिणी के तट पर खड़े रह कर ही उस पद्मवर पुण्डरीक को सम्बोधित करते हुए कहा - "हे पद्मवर पुण्डरीक ! ऊपर उठो, इस कीचड़ और जल से ऊपर उठो और इधर आ जाओ।
उस सर्व भूत-हित में निरत और राग-द्वेष रहित साधु के प्रभावपूर्ण उद्बोधक वचन को सुनकर पद्मवर पुण्डरीक तत्क्षण पुष्करिणी के दलदल को छोड़कर तट पर खड़े उस साधु के चरणों में आ पहुंचा।"
.. पुण्डरीक के इस रूपक के माध्यम से प्रभु ने बताया कि चौदह रज्जू प्रमाण इस लोक (संसार) रूपी पुष्करिणी में विभिन्न प्रकार की जीव-योनि के जीव रूपी कमल तथा मानव रूपी पुण्डरीक कमल भरे हैं । संसार रूपी पुष्करिणी के कर्मरूपी जल के कारण जीव रूपी कमल विविध योनियों में उत्पन्न होते हैं। वे संसार रूपी पुष्करिणी के काम-भोग रूपी कीचड़ में फंसे रहते हैं। चारों दिशाओं से आये हुए पुरुष वस्तुतः अहिंसामूलक धर्म से अनभिज्ञ, अन्य तीथिक अकुशल धर्मोपदेष्टा हैं । वे संसारी प्राणियों के उद्धार का दम्भ भरते हए स्वयमेव संसार रूपी पुष्करिणी के काम-भोग रूपी कीचड़ में फंस जाते और अनन्त काल तक दुःख पाते हैं।
__ संसार रूपी पुष्करिणी का तट धर्म-तीर्थ है। पांचवां पुरुष वस्तुतः किसी भी कूल से श्रमणधर्म में दीक्षित साध है। वह षट् जीवनिकाय के प्रारम्भ-समारम्भ का त्यागी अर्थात् त्रिकरण-त्रियोग से सभी प्रकार की हिंसा का परित्यागी और
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