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वीर निर्वारण से देवद्धि-काल तक ]
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निकायों के आरम्भ समारम्भ द्वारा प्राणि हिंसा करते, इसी प्रकार दूसरों से प्रारम्भ समारम्भ करवाते, प्राणिहिंसा करवाने वाले तथा दूसरों द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनुमोदन करते, वे धर्माध्यक्ष-धर्मोपदेशक अपनी आत्मा का तथा दूसरों का उद्धार नहीं कर सकते, अपितु वे सुदीर्घ काल तक संसार में अनेक प्रकार के दुःख भोगते हुए भटकते रहते हैं ।
इस तथ्य को सूत्र कृतांगसूत्र में एक रोचक रूपक द्वारा बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है, जो इस प्रकार है :--
" एक बड़ी ही मनोहर पुष्करिणी है । वह अथाह जल और प्रगाध कीचड़ से भरी है । पुष्करिणी में प्रति सुन्दर और मनोहारी सुगन्धयुक्त अनेक श्वेत कमलपुष्प हैं । उस पुष्करिणी के बीचोंबीच एक बड़ा ही नयनाभिराम प्रियदर्शी, सुरभि एवं रसयुक्त पद्मवर पुण्डरीक है ।
पूर्व दिशा से एक पुरुष उस पुष्करिणी के पूर्वीय तट पर आता है । पुष्करिणी के मध्यभाग में स्थित श्रेष्ठ एवं सुन्दर श्वेत कमल को देखकर उसका मन लालायित हो उठता है । उस श्वेत कमल को लेने के दृढ़ संकल्प के साथ वह पूर्व दिशा से आया हुआ व्यक्ति पुष्करिणी में प्रवेश कर उस पद्मपुण्डरीक की ओर बढ़ता है । वह पुरुष पुण्डरीक तक नहीं पहुंच पाता, तट और पुण्डरीक के बीच में ही गहरे कीचड़ में फंस कर हिलने-डुलने में भी असमर्थ हो दुःखी हो जाता है ।
उसी समय दक्षिण दिशा से दूसरा पुरुष उस पुष्करिणी के तट पर प्राया । उसने पद्मवर पुण्डरीक और पूर्व दिशा से आये हुए पुरुष को कीचड़ में फंसा देखा, तो उसने कहा - "यह पुरुष अकुशल है, पद्मवर पुण्डरीक को लेना नहीं जानता, इसीलिये कीचड़ में फंस गया है । पर मैं कुशल- तत्वज्ञ हूं, श्रम करना जानता हूँ । मैं इस श्वेत कमल को अवश्य प्राप्त करूंगा।" अपने इस दृढ़ संकल्प के साथ वह भी पुष्करिणी में उतरा, पर तट तथा श्वेत कमल के बीच पहुंचते-पहुंचते वह भी प्रति गहन कीचड़ में बुरी तरह फंस गया और पश्चात्ताप करने लगा ।
तदनन्तर पश्चिम दिशा से तीसरा पुरुष पुष्करिणी के पश्चिमी तट पर आया । वह भी पंक में फंसे दोनों पुरुषों की आलोचना, ग्रात्मश्लाघा एवं पद्मवर पुण्डरीक को लेने का संकल्प करने के पश्चात् उस पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ । वह तीसरा पुरुष भी पुण्डरीक और तट के बीच उस पुष्करिणी के गहरे पंक में ऐसा फंसा कि एक डग भी आगे पीछे अथवा दायें, बायें हिलने-डुलने में असमर्थ हो गया । वह भी अपने किये पर पछताने लगा ।
"
उसी समय चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के उत्तरी तट पर पहुंचा। उसने भी पद्मवर पुण्डरीक को प्राप्त करने के प्रयास में मार्ग में ही कीचड़
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